उफ्फ्.... ये मंज़िल!

जाने कहाँ और कैसे ?
खो गई थी मैं।
किसी जहाँ मे……
खुद को भूल गई थी शायद ,
चल पड़ी थी,
किसी वीरान रस्ते पर ,
निर्जन था,
कोई दिखा नहीं,
कुछ मिला नहीं ,
न सुकून था ,
न सुख 
न आँसु ,
न दुःख ,
उदासीन सा 
' सबकुछ '
चुभता रहता था 
उस राह में 
' कुछ ' 
'वो' शायद जिसे 
काँटा कहते हैं.… 
'लोग'
उस काँटे की टीस 
उतनी न थी,
जितनी उस राह 
पर चलने की 'चुभन' थी। 
न जाने कैसा मोड़ था 'वो' 
जो चलते चलते 
अचानक ही आ गया था,
खुद को ढूंढ ही लिया मगर 
मैंने,
पा ली है,
एक नई राह.……… 
चलती रहूंगी अब उसी पर,
शायद अबकी बार.… 
मिल ही जाए 
मुझे 'वो' 
मंजिल,
जिसके लिए,
कहीं खो गई थी मैं.…
किसी जहाँ मे……
(स्वरचित) dj  कॉपीराईट © 1999 – 2015 Google

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ये कवितायेँ लिखते लिखते मुझे मंज़िल मिले न मिले आप जब कविता पढ़ते पढ़ते 
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टिप्पणियाँ

  1. Ati samvedansheelta ke saath, samvedansheel logo ke likhi gai ek aur shreshtha shilp. Acchi baat ye he ki 'DJ ki Lekhni' lekhni hamesha ek POSITIVE sandesh ke saath puri hoti he.

    जवाब देंहटाएं
  2. धन्यवाद अनुपमा जी। आप ऐसे ही प्रतिक्रियाएं देतीं रहिये आपकी सलाह हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है।

    जवाब देंहटाएं

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