मेरा क्या कसूर - episode 2

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मेरा क्या कसूर - एपिसोड 2

पिछले एपिसोड में आपने पढ़ा, प्रेरणा को कोई ब्रेसलेट अलमारी से मिलता है, जिससे उसे रक्षिता याद आ जाती है। प्रतीक लंच टेबल पर उसका इंतजार करते हुए उसे आवाज लगाता है। माँ से फोन पर बात कर प्रेरणा भावुक हो जाती है।उनसे रक्षिता के बारे में पूछने पर माँ कहती हैं कि "रक्षिता का अब तक कोई पता नहीं चला।" वह प्रतीक से इस बारे में बात करने की इजाजत माँ से मांगती है। जिसे वे सिरे से नकार देतीं हैं। डोर बेल बजने पर प्रेरणा दरवाजा खोलने जाती है।
अब आगे-

"नमस्ते! दीदी" उसने अपनी मोहक मुस्कान के साथ कहा।
"नमस्ते ज्योति आ जा।"
पहले चाय बना दूं, दीदी!?
"मेरे चेहरे का उड़ा रंग देखकर ही वह समझ गई कि मुझे चाय की सख्त जरूरत है।"
"प्लीज यार जल्दी बना दे!" मैने किसी छोटे बच्चे से भाव चेहरे पर लाते हुए एक तरफ गर्दन झुका मनुहार करते हुए कहा।
अभी लाई। कहकर वह किचन की और बढ़ गई।
"और अपनी भी ले आना, साथ बैठ कर पिएंगे।" मैंने उसके पीछे जाते हुए कहा।
और साहब के लिए?
एक बार जाकर पूछ ले... अच्छा रुक मैं ही जाती हूँ।
माँ की नसीहतें याद आते ही मैं उसे रोक खुद ही बढ़ गई बेडरूम की ओर।

मैं दीदी, और प्रतीक साहब!!! ये आज़ादी मैंने ही तो दी थी उसे।जब पहली बार मिलने पर उसकी जीभ को मेमसाहब जैसे भारी भरकम शब्द से वर्जिश करते देखा था। सोचते सोचते बैडरूम तक आ गई थी मैं।

प्रतीक को सीधे कुछ बोलने का अब भी ना जाने क्यों मेरा मन नहीं करता।
कमरे के बाहर खड़े होकर मैंने दरवाजा बजाया।

"हाँ, आ जाओ प्रेरणा।"
दरवाज़ा ठेलते हुए मैं भीतर गई।

चाय पियेंगे आप?
"तुम्हारे हाथ की...!?" उन्होंने अपनी निगाहों और उंगलियों को लैपटॉप पर ही केंद्रित रख, शंका मिश्रित व्यंग्यात्मक मुस्कान, उसी लैपटॉप को दिखाते हुए पूछा!

"नहीं! ज्योति बना रही है…।" उन्हें व्यस्त देख मेरे चेहरे पर भी अचानक अपने हाथ की बेस्वाद चाय के बारे में सोचकर मुस्कान आ गई।
"तो फिर पी लूँगा।" इस बार भी लैपटॉप में नज़रें गड़ाए हुए ही प्रतीक ने मुस्कुराकर जवाब दिया।

"ठीक है।" कह कर मैं बाहर निकलने लगी।
"माँ से बात हो गई…?" दरवाज़े तक पहुँचने के बाद अचानक इस बार उन्होंने नज़र उठाकर पूछा।

" हां हो गई।" संक्षिप्त सा उत्तर मैंने दिया। मैं कुछ पल रुकी पर बदले में उन्होंने नहीं पूछा कि घर पर सब कैसे हैं? जैसे माँ ने पूछा था।
मैं दरवाजे को अपनी और खींचते हुए अटकाकर बाहर आ गई। जिस तरह वह पहले था। ज्योति उनके लिए भी चाय बना देना और कमरे में दे देना। मैं बालकनी में हूँ। उसे निर्देश दे, मैं चली आई।

सड़क पर इधर से उधर भागती गाड़ियों की रेलम-पेल देखकर, कई बार मैं सोच में पड़ जाती थी। कभी-कभी लगता था इंसानों का शहर है या गाड़ियों का!? मैं ठहरी प्रकृति प्रेमी और आसपास मुझे एक भी पेड़ दिखाई नहीं देता था।
मेरी बालकनी मुझे कुछ खास पसंद नहीं है।
यहाँ से ना तो समुद्र, नदी, पर्वत का कोई व्यू दिखता है न हरे भरे वृक्षों, फूलों या फलों के पेड़-पौधे।

हाँ!!! पंछियों का झुण्ड जरूर आसमान में कभी-कभी दिखाई देता, मगर उनका कलरव यहाँ इस शहर में पसरी अशांति में सुनाई नहीं देता। जैसा मैं अपने छोटे से शहर में सुन पाती थी।  गाड़ियों के बीच से सड़क पार करती हुई मेरी नज़र आसमान में मंडराते काले बादलों पर पड़ी, जो घनघोर बारिश होने के संकेत दे रहे थे। बारिश जो मुझे सख्त नापसन्द थी... बारिश जो रक्षिता की पहली पसंद थी...! वह लड़की तो पागल सी हो जाती थी आसमान से बरसती बूंदें देखकर! जितना मैं उसे भुलाने की कोशिश करुँ, आज वह रह-रह कर मेरे दिल-दिमाग के खिड़की-दरवाज़ो पर बार-बार दस्तक दिए जा रही है।
अचानक तेज़ बारिश शुरू हो गई। मैं थोड़ा पीछे हट गई। मेरी नज़र सड़क पर फिर से गई वहाँ से सारी गाड़ियाँ गायब हो चुकी थी। एकदम सन्नाटा सामने कोई है तो बस रक्षिता जो सड़क पर झूम झूम कर नाच रही है। चेहरा ऊपर कर उन बूंदों को सीधे अपने चेहरे को स्पर्श करने की सहर्ष अनुमति दिए जा रही है। मुझे देख बार बार मुस्कुरा रही है। पानी में उछल मुझ पर पैरों की छपाक से मुझ पर पानी उड़ाने की नाकाम कोशिश कर रही है।
"देख, रक्षिता! मुझसे बिल्कुल दूर रहना। मेरे ऊपर पानी की एक बूंद भी आई ना! तो फिर देख लेना।"
अरे! टेंशन न लो जीजी! मैं आपके ऊपर बूंद थोड़े आने दूँगी, मैं तो इन बारिश से भीगे, पानी टपकते कपड़ों में आपको गले लगाऊँगी।कहकर वह खिलखिलाई।
"देख! बहुत मार खाएगी। अगर तूने ऐसा किया।"
"वो तो तब न जब आप उसके बाद मुझे पकड़ने आओगे।"
कहकर वह मुझे जबरदस्ती गले लगा, फिर से भाग कर सीधे सामने रोड पर पहुंच गई। उसे पता था, मैं उसके पीछे भागने के बजाए अपने कपड़े बदलना पहले प्रेफर करूँगी।
"क्या दीदी आपको पानी से इतनी क्या एलर्जी है!?"
"पानी से नहीं बारिश से।"  "कितने लोगों के लिए मुसीबत बनकर आती है।"
"ओ मेरी भोली जीजी...",  "आप भी ना सच में... एक बार देखो तो कितना सुहाना मौसम है!! इन बूंदों को एक बार हाथ में ले कर तो देखो!!! कितनी ठंडक जन्नत का एहसास होता है!! बिल्कुल ऐसा लगता है जैसे ईश्वर खुद नेह बरसा रहे हैं, हमारे ऊपर!!! 
"लो, एक बार हाथ में लेकर देखो न! लो…ना…!" "मैं कब से लेकर खड़ी हूं!"
"अरे!!!!! अब ले भी लोsssss… …दीदीssss! ओsss !दीssssssदीsss!!" "ज्योति ने आखिरकार कंधा पकड़ कर मुझे जोर से हिलाया! दीदी चाय ले भी लो अब कब से लेकर खड़ी हूँ!"

मैं बेकार में प्रतीक को दोष देती हूं। उसके हाथ से चाय का कप लेते हुए मुझे एहसास हुआ।
सामने सड़क पर देखा, अब भी वैसे ही गाड़ियाँ उसी तरह भाग रही थीं! कोई बारिश नहीं हुई! न रक्षिता आई! न ही उसने मेरे कपड़े भिगाये!
काश! तू आ जाए! तेरे कहने पर शायद अब  बारिश में भी भीग लूँगी!
कुछ बरस पुरानी रक्षिता और उसकी मीठी यादें फिर मेरे जेहन में चली आई और साथ ही चली आईं कुछ कड़वी स्मृतियां भी!

मुझे इसीलिए खाली बैठना कभी पसंद नहीं था और प्रतीक को मेरा व्यस्त रहना। जब भी मैं खाली बैठती कोई ना कोई विचार मेरे मस्तिष्क को कीड़ों की तरह खाए चला जाता। खाली समय किताबों या संगीत में तल्लीन रहना, मेरा पुराना पसंदीदा शगल था, स्कूल के समय से! और यहां किताब लेकर बैठती, तो प्रतीक को वह पसंद नहीं आता। संगीत में  उन्हें मेरी ओल्ड, क्लासिकल, सूफी, सूदिंग, सांग्स वाली प्लेलिस्ट कभी जँची ही नहीं।
हाँ!!! मेरी पढ़ने के प्रति दीवानगी देखकर उन्होंने इतनी छूट जरूर दे दी थी कि जब वे घर में ना हो तभी मैं कोई किताब हाथ लूँ। एक बड़ा एहसान था ये उनका मुझ पर!!!

हाँ...!!! ये बात और है कि घर मे होते हुए भी वे मेरे साथ कम ही होते थे! पर मेरा व्यस्त रहना उन्हें खलता था और इस बात पर कईं बार वे तंज भी कसते।

जैसे उन्हें मेरा व्यस्त रहना नापसन्द था वैसे ही मेरा खाली बैठना भी उन्हें गंवारा न था क्योंकि फिर मैं दुनिया जहान को भूल अपने थिंकिंग मोड में आ जाती। शुक्र है हम में ये एक पसन्द मिलती थी। खैर उनके लिए इन छह महीनों में मैने अपने मे बहुत बदलाव किए थे। खाली रहना और सोचना उनके सामने बिल्कुल बन्द कर दिया था। आज इस ब्रेसलेट ने मन में फिर उथल-पुथल मचा दी थी। 

"खाने में क्या बनाऊँ दीदी?" मुझे मुझे विचारों में गुम देख, मुझे अपने साथ छोड़, वह कब से चाय के कप के साथ सुबह के बर्तनों को भी निपटाकर किसी सुपर हीरो की तरह वापस आकर मेरे सामने खड़ी पूछ रही थी।

"आज मैं बनाऊँगी तू बस मेरी थोड़ी मदद कर दे।"
ज्योति मुझे ऊपर से नीचे तक देखने लगी।

"रहने दो दीदी! कहीं पिछली बार सी..."

"चुप कर आज सुबह भी मैंने ही बनाया था... और ज्यादा गड़बड़ हो तो तू है ना! तू सम्भाल लेना। कहकर में मुस्कुरा दी।
खाना बनाना, मुझे किसी युद्ध क्षेत्र में तलवार चलाने से भी ज्यादा कठिन जान पड़ता था। मगर प्रतीक के घर होते हुए खुद को इसके अलावा किसी और चीज़ में व्यस्त रखा भी नहीं जा सकता था। अधिकतर इतवार के सुकूनभरे दिन को मैं किचन में खटकर खराब कर देती। अपने लिए भी और पतिदेव के लिए तो बेहद खराब।

लेकिन मुझे याद आया आज सुबह उन्होंने इसे लेकर कोई विशेष टिप्पणी नहीं की! घोर आश्चर्य!!!!
मैं तो खाने के साथ रक्षिता की यादों का दर्द गटक रही थी सो मुझे तो स्वाद का बोध होना संभव ही न था। मगर प्रतीक का बिन कुछ कहे मेरा बनाया खाना खा लेना!!!? ये तो चमत्कार से कम न था।
मैने ज्योति को बताकर पूछा क्या ये संभव है कि मैं अच्छा खाना बनाने लगी हूँ!?
"हो सकता है दीदी! उससे ये सुनकर दुगने उत्साह से किसी वीरांगना की भाँति मैं किचन में प्रवेश कर गई।
1 घण्टे की जंग के बाद उमस से पसीने में तरबदर हो चुकी थी। नहाकर प्रतीक को आवाज़ लगाई।

वे भी फ्रेश होकर खाने की टेबल पर आ चुके थे। ज्योति भी सर्व कर हमारे साथ बैठ गई।
"जब तुमसे होता नहीं तो क्यों बनाती हो?" पहला निवाला अंदर जाते ही प्रतीक ने कहा।
"बिल्कुल भी नामक नही है सब्ज़ी में।"
"स..स.साहब  वो नामक मुझे डालने को कहा था दीदी ने।" मेरी उतरी शक्ल देख उसने बचाया। ज्योति सुबह भी इसका बनाया खाना गाय को खिलाकर बाहर से आर्डर किया। तुम्हारी दीदी को होश भी नही है कि उसने बनाई क्या सब्ज़ी थी और खाई कौन सी। इसलिए सुबह कई बार लगा की कुछ गड़बड़ है।
मेरे समझ मे माजरा अब आया। और खुद ओर गुस्सा भी। मगर क्या करती। गलगी थी सहुपचाप नज़रें झुकाए सुनती रही।
सुन लो प्रेरणा, और बहुत ध्यान से प्लीज़! रोज़ इतना खाना  बिगड़ना सही नही है। निश्चित तौर से कुछ सोच विचार में मग्न होंगी। तभी तो ध्यान नहीं रहा तुम्हें नामक डालने का।
मैन झट से जयति की बनाई सब्ज़ी का बाउल आगे कर दिया। तो ये कहा लीजिये। ज्योति से बनवाई है।
सोच शायद अब शांति से वे खा पाएँगे मगर उनका कहना आगे भी पूरा खाना खत्म होने तक जारी रहा...।

"कभी-कभी तो मेरे समझ में नहीं आता कि तुम बैंक में काम करती कैसे हो? जाने कैसे पैसों का लेन-देन करती हो? मुझे डर है, कल को हम कहीं बड़ी परेशानी में न फंस जाएँ!" हर बार की तरह उनका ये ताना तीर की तरह दिल पर लगा।
मैं अपने काम को लेकर कितनी ईमानदार और सतर्क हूँ मुझे बताना था पर न कह पाई। पता नहीं मैंने उस वक्त ही क्यों नहीं कहा कि मुझे बैंक से कर्तव्यनिष्ठ और होनहार कर्मचारी का तमगा मिला हुआ है जो हमारे हॉल में  सेंटर वाल पर लटकाया गया है। जिसे देखकर आने-जाने वाले लोग इसी प्रेरणा की भूरि भूरि प्रशंसा कर जाते हैं। शायद उस पर आप की कभी नज़र नहीं पड़ी। न जाने ये सब में जवाब में क्यों नही कहती!?
खाना खाकर प्रतीक ने वॉक पर चलने को कहा। 

न जाने ये दस मिनिट में फिर सामान्य कैसे हो जाते हैं। मन नही था। मगर  प्रतीक के साथ रहते मन का मैने किया ही कब था? तो साथ हो चली।
कुछ ही देर में सड़क किनारे घूम रहे थे हम और हमारे साथ घूम रही थी गहरी ख़ामोशी।

लेकिन मेरा मस्तिष्क कहाँ ख़ामोश रहता? 


प्रतीक भी रक्षिता की तरह मुझसे एकदम विपरीत थे। पर रक्षिता फिर भी दिल के जितना करीब थी प्रतीक उतने ही दूर।  पता नहीं दुनिया में हमेशा मुझे, मुझसे मुख़्तलिफ़ लोग ही क्यों मिलते हैं; या फिर मैं ही पूरी दुनिया से अलग हूँ। जहां मेरे सोच विचार एक पल के लिए भी थमते ही ना थे, वहीं मेरे साथ चल रहे इस शख़्स का स्वभाव ऐसा था कि वह बिना ज्यादा सोच विचार के बस तुरन्त निर्णय ले लेता था।

कभी-कभी सोचती हूँ प्रतीक इतने भावहीन कैसे हैं!? ईश्वर  ने हमें मनुष्य जीवन दिया, सोचने-विचारने के लिए बुद्धि दी। माया, स्नेह, सुख-दुख, ममता, क्रोध जैसे भाव दिए। अनुभूति के लिए कोमल और संवेदनशील हृदय भी। पर दुनियादारी हमारे इन स्वाभाविक गुणों को धीरे धीरे लील जाती है कहीं न कहीं। शायद इसलिए उनके पास भी अपने काम के अलावा ना किसी के लिए सोचने विचारने का समय था और न भावों को अनुभव करने का।
अब ये रिश्ता यहीं खत्म कर देते हैं प्रेरणा! लंबी खामोशी के बाद अचानक ये वाक्य किसी धमाके से कम न था।
बीच रोड पर ये सुनकर मुझे अपने कानों पर एकबारगी भरोसा नहीं हुआ। धड़कने दुगनी गति से चलने लगीं थी।

क्या होगा प्रतीक और प्रेरणा के रिश्ते का अंजाम? क्या प्रेरणा रक्षिता को भूल पाएगी?क्या वे दोनों कभी फिर से मिलेंगे? जानने के लिए पढ़ते रहें। मेरा क्या कसूर।

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टिप्पणियाँ

  1. कहानी में सतत जीवंतता बनी हुई है और आगे क्या ये उत्सुकता बढ़ती ही जा रही है
    बहुत ही सुन्दर सधा हुआ लेखन 👌👌👌

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  2. Waaah divya saa atyant mohak bandh diya kahani se...

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