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सब दर्दों की एक दवा: मेरी प्यारी "चाय"

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 बरसती हों आंखें या हों बरसते बादल, थाम लेती हूँ मैं तो बस तुम्हारा आँचल होठों पर मुस्कान हो तब भी तुम्हारी जरूरत बनी रहती है न मिले जिस दिन सुकून से तुम्हारा साथ, उस दिन रूठी सी मुझे, मुझसे, मेरी ज़िंदगी लगती है।  कैसे घूँट-घूँट कर तुम मुझमें मिल जाती हो मुझमे घुलते हीअमृतपान सा एहसास कराती हो हर दर्द-ए-ग़म को चुटकियों में हर ले जाती हो कितनी सह्रदय हो न तुम, ये सोचती हूँ मैं… जो तुममें मिलना चाहे… सबको अपना बनाती चली जाती हो। ©®divya joshi