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अप्रैल 13, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

"छोटू"

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वो रेत, और  सूखे पत्ते  रेत पर बनते बिगड़ते ,  कदमो के निशान , गवाह हैं  गुजरते हैं रोज़  वहां से कुछ  "इंसान"  सभी साफ़ स्वच्छ वस्त्रों में लिपटे  मलिन नहीं।  "मलिन" तो बस "वो"एक ही घूमता है, हर रोज उन्ही वस्त्रों में  वो "छोटू"…। बेचता है वहाँ, कुछ फूल कुछ गुब्बारे, राहगीर दिखते हैं जहाँ।  झट से दौड़ पड़ता है उनकी तरफ, आते हैं कईं बार दिलदार,  ले जाते हैं उस से, कुछ फूल कुछ गुब्बारे।  और दे जाते हैं उसे,  चन्द रुपए,  मिल जाता है उसे, एक वक़्त का खाना।   पूरा नहीं, आधा अधूरा ही सही।  बस यही जीवन है उसका, यही दिनचर्या।  सोचती हूँ कईं बार.……  ले आऊँ छोटू को , अपने साथ,  अपने घर.…  दूँ उसे पेट भर खाना, चाहती हूँ, न ढोये वो "मन"पर  उन "भारी" गुब्बारों और फूलों का बोझ  उसके नन्हे कंधे ढोये तो बस,  कुछ किताबों का बोझ।  मगर.………………… पूरी हो मेरी ये सोच  उसके पहले, दिखता है मुझे एक और  "छोटू"  ये क्या..............???????? एक और ?????? फिर एक और.…………  हर जगह "छोटू" ……? जह