धरती की पुकार

धरती की चीत्कार सुनी क्या, क्या पुकारे धरती माँ, तूने अगर सहेजा होता, फिर मैं ये सब करती ना। हरे भरे थे मेरे गहने, हर एक तुमने छीन लिया, वृक्ष विहीन हो जियूँ मैं ऐसे, जैसे रघुवर बिन जिए सिया। जब चाहा तब मेरा सीना , ऐसे तुमने चीर दिया , मैं तो अमृत देती तुझे, तूने एक बून्द नीर भी न दिया। सोच के तो देख ए मानव ज़रा , पाला पोसा तुझे बड़ा किया, तूने अस्तित्व मिटाने को मेरा, एक पल भी न इंतज़ार किया। मैं न ऐसे प्रलय मचाती, गर तूने समझा होता , पूजा भले न होता मुझे, कुछ तो सम्मान दिया होता। अन्न तूने खाया मेरा, उसका क़र्ज़ भी क्या तू चुकाएगा, मुझमे ही पैदा हुआ और , इक दिन मुझमे ही मिल जायेगा। कभी वन्दनीय कहलाती थी पर , आज तेरा वंदन मैं करती हूँ , मत कर ये अत्याचार , तुझसे बस यही निवेदन करती हूँ। वरना भरे सजल नेत्रों से, मैं विवश यही अब करती हूँ, तूने हरा है छीना मुझसे, तेरा लाल मैं खुद में भरती...