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संभल जाओ धरा वालों

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क्यों है आजकल विश्वास का परिणाम विश्वासघात, हर जगह बिछी हो जैसे शतरंज की कोई बिसात।  किसी के लिए मायने नहीं रखते क्यूँ किसी के जज़्बात,  रिश्तों में क्यूँ  मिलती है अब नफरत की सौगात।  भावनाशून्य इस जग में किससे करें अपेक्षा , अपने खुद ही नहीं कर पा रहे अपने रिश्तों की रक्षा।  मासूमियत निवेदन तो जैसे गुम है , भावनाएँ सहनशीलता जैसे कोई स्वप्न है।   हर एक भावना लगती अब तो सुन्न है, ये सब देख के मन आज बड़ा ही खिन्न है।  क्यूँ अपनों को अपनों से बैर है एक नफरत सी हर और है,  ईर्ष्या छायी घनघोर है  बस "स्व"  का शोर चहुँओर है।  ये स्वार्थपरता कहाँ से आ गई इस देश में , राम ने शबरी के झूठे बेर खाए थे जहाँ वनवासी के भेस में।   जिस धरती पर कृष्ण अवतार दो माओं के बाल  थे , आज एक माँ को रख नहीं सकते उसके चार लाडले लाल हैं।   हर अच्छाई का जैसे हो रहा अब अंत है , नहीं काम आते प्रवचन न उपदेश न सन्त हैं।   अनेकता में एकता जो पहचान थी इस धरा की ,  एकता तो अनेकता (जाति -पाँति ) ने जाने कब की हरा दी।   शायद इसीलिए अब बार बार यूँ होते शिव कुपित हैं, दिखाते अ