मेरा क्या कसूर - episode 3

मेरा क्या कसूर एपिसोड 1

मेरा क्या कसूर एपिसोड 2

पिछले एपिसोड में आपने पढ़ा प्रेरणा को बार-बार रक्षिता  की यादें सताने लगती हैं। वह उन यादों से दूर होने और खुद को व्यस्त रखने के लिए प्रतीक के लिए खाना बनाने की सोचती है, मगर हमेशा की तरह खाने में कुछ ना कुछ कमी रह जाती है। प्रतीक प्रेरणा से घूमने चलने के लिए कहता है दोनों नीचे घूम रहे होते हैं और अचानक प्रतीक कहता है कि अब इस रिश्ते को यहीं खत्म कर देते हैं। अब आगे

मेरा क्या कसूर - एपिसोड 3

चलते चलते मैं जैसे उसी जगह जड़वत हो गई। मेरे मस्तिष्क में शादी तय होने के कुछ दिन बाद के दृश्य और मां के कहे शब्द तुरंत घूमने लगे। 

"देख प्रेरणा में जानती हूँ ये जीवन तेरे मन के मुताबिक नहीं है। पर किसी भी हाल में तुझे ये रिश्ता निभाना है। कोशिश करना तेरी तरफ से कोई गलती न हो। शादी एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है तुझे मुश्किलें आएँगी। मगर अपने मां-पापा का मान रख लेना। कुछ चीज़ें सहन भी करनी पड़ सकती हैं। बिना किसी ठोस कारण के घबराकर, रो-धो कर यहाँ न चली आना।"

अचानक से मां मुझे पराई लगने लगी, यह दृश्य धूमिल होकर मेरी विदाई का दृश्य सामने दिखने लगा। फिर माँ पापा के आँसूं दिखने लगे, सारे दृश्य आंखों के सामने से गुजरते गए और सब कुछ धुंधला होने लगा। मेरी आंखों में भी अब बचे थे बस कुछ आँसू। 

वे आंसू जो बाहर नही आ पाने के कारण अंगारों से जल रहे थे और उन्हीं अंगारों से उठी टीस में मेरा मन भी जल रहा था तेज बहुत तेज... लेकिन बाहर से फिर भी मैं पूर्णतः शांत थी। मुझे लगने लगा जैसे मेरे हाथ से अचानक सब चीजें छूटने लगी है। मैं बुत सी चुप ही रही। 


मेरे मन ने तो आंखों के जरिये उन्हें उनके कहे पर प्रतिक्रिया दे दी थी, लेकिन वे तो पढ़ने के शौकीन थे ही नहीं!!!!

और अभिव्यक्ति में,  मैं हमेशा पीछे ही रही! न जाने उन्होंने ये कहने के बाद मुझे देखा भी या नहीं... पता नही ये कहकर उन्हें कुछ एहसास हुआ या नहीं, पर हां!! मुझे फर्क पड़ा था। 


छः महीने इस शादी को संभालते संभालते हो चुके थे। बहुत ज्यादा समय भी नहीं हुआ था लेकिन पल पल मैंने यहाँ एक एहतियात से जिया था कि मुझे ये लगने लगा जैसे अरसे से मैं इस रिश्ते को संजोने की जद्दोजहद कर रही हूँ। 

मैंने आंखे एक बार बंद कर खोली...विचार तंद्रा भंग हुई। 


प्रतीक बहुत दूर थे मुझसे... घर का रुख ले लिया था उन्होंने। बिन कुछ बोले बुरी तरह हारे हुए खिलाड़ी सी मैं भी उनके पीछे हो ली। ऊपर जाकर भी मैं कुछ न बोली।

लेकिन दिल दिमाग चुप न रहे। क्या इतना आसान है खत्म कर देना? दुःखी थी अंदर से मैं। बुरा तो बहुत ज्यादा लग रहा था।  मगर किसी के समक्ष  रोना, गिड़गिड़ाना, किसी से कुछ मांगना, या इच्छानुरूप पाने के लिए तुरन्त लड़ पड़ना, ये सब मुझमे न जाने क्यों चाहते  हुए भी आ नही पाया कभी। 

प्रतीक आराम से सो गए और मुझे बहुत वक्त लगा।  आधी से अधिक रात इस उधेड़बुन में कब खत्म हो गई पता ही न चला। 

मैं उनके सामने रोई नहीं। ना ही लड़ी। क्योंकि इस तरह लड़ना मेरी नीतियों के विरुद्ध था। मैं प्रतिकार करती थी, मगर शांत चित्त से। 

पता नहीं मैं सही थी या गलत, पर मुझे  हमेशा लगता कि किसी अशांत चित्त व्यक्ति को शांत करने के लिए अगर आप खुद भी अशांत चित्त हो गए तो उसका चित्त तो शांत हो जाएगा, मगर उसे प्रतिउत्तर देने के लिए आप तुरन्त उस पर हावी हुए, उससे लड़े तो उसके बाद आपके दिमाग मे छाई इस अशांति को अब कौन दूर करेगा? 

आग को आग से भला खत्म किया जा सकता है!? उसके लिए तो पानी की जरूरत होती है ना!!!  


मेरी विचार तंद्रा मेरे मोबाइल के सुबह 4 बजे के अलार्म ने तोड़ी। जिसे प्रतीक नींद में ही हमेशा की तरह स्नूज़ कर सो गए। इतनी परेशानी में भी मेरे  चेहरे पर एक फीकी सी मुस्कान आ ही गई ये सोचकर कि अभी जाग जाते तो कहते इतनी सुबह का अलार्म लगाकर करती क्या हो?

मैं उठकर गर्म पानी पीकर योगा के बाद नहाई। इस घर में एक चीज जो मुझे सबसे ज्यादा पसंद थी वह था मेरे घर का मंदिर।

जिसे मैंने खुद अपनी पसंद से अपने अनुसार बनवाया था।

जब पहली बार प्रतीक ने मुझे गिफ्ट देना चाहा और उस के लिए मेरी पसंद पूछी थी तो मैंने उनसे यही उपहार मांगा था। 

अपनी एक घण्टे की षोडशोपचार पूजा निपटाने के बाद मैं कुछ अच्छा महसूस कर रही थी।  पर आज रोज की तरह किताबों का पहाड़ लेकर नही बैठी। सिर्फ डायरी पेन निकाला कुछ देर कागज़ काले किए। तब तक प्रतीक भी उठकर नहाने चले गए। मैने झट से सब कुछ समेट कर अपनी कवर्ड बुक शेल्फ में रख दिया। 

मैं चाय बनाऊँ या नही इसी उधेड़बुन में थी। इतने में प्रतीक किचन में चले गए। 

दस मिनिट के बाद दो कप चाय सहित वापस लौटे। 

चाय पीते हुए ही वे अखबार के पन्नों को जल्दी-जल्दी पलट रहे थे। चित्रों को देखकर अखबार बन्द कर रख दिया उन्होंने।  


उन्हें अखबार पढ़कर सुनाने का ज़िम्मा पिछले तीन-चार महीनों से मेरा था। मुझे इस काम मे सबसे ज्यादा मज़ा आता था। पढ़ना ना जाने क्यों उन्हें सख्त नापसंद था। जरूरी और काम की जानकारियाँ भी मुझे खुद ही उन्हें पढ़कर बतानी होती। 


"आज मुझे थोड़ा जल्दी जाना है चाय पीते हुए ही वे बोले।" 

"ज्योति को कह दो की थोड़ा जल्दी आ जाए। वरना मैं कुछ आर्डर कर देता हूँ नाश्ते के लिए।"


मैं बना देती हूँ, कहना चाहती थी मगर डर के मारे मैं कह न पाई। 


प्रतीक का व्यवहार ऐसा था जैसे कल रात कुछ हुआ ही नही। उनका स्वर बेहद सामान्य था चेहरे पर किसी तरह की परेशानी गुस्सा या कोई दुर्भाव मुझे दिखाई न दिया।

कमाल है!  जिस बात को लेकर मैं पूरी रात सहज न हो पाई, रातभर सो न पाई, इन पर उसका कोई असर न रहा!!!


वे अपने कमरे में चले गए। ज्योति को फोन लगाते ही कुछ ही देर में वो आ गई। उसने हम सबके लिए नाश्ता बनाया हमने नाश्ता किया। 


चलो बाय! शाम को मिलता हूं। मेरी और देखकर कहकर वे फ्लैट से बाहर निकल नीचे उतर कर अपनी गाड़ी की और बढ़ गए। मैं तुरंत दौड़कर बालकनी में पहुँची। 

ना!!! मेरा कोई मन नही था उन्हें यहाँ से देखने का। 

ये तो एक तय नियम था उन्ही का, फिर से मेरे लिए!!


"जब भी मैं आफिस जाऊँ तो तुम्हें बालकनी में मुझे सी ऑफ करने आना चाहिये!" उनकी पंक्तियाँ उनके आफिस जाते वक्त मेरे कानों में हमेशा गूंजती। 

सिर्फ घर के अंदर से बाय कह देना काफी न होता था उनके लिए। बालकनी में उनके जाते वक्त मेरी उपस्थिति अत्यंत आवश्यक थी। चाहे मेरे पास कितना भी जरूरी काम क्यों न हो। मुझे अच्छी तरह याद है एक दो बार ये बेहद इम्पॉर्टेन्ट काम मिस होने के बाद उनके और मेरे बीच का तनाव कैसा था। और तबसे इस रिश्ते के अच्छे स्वास्थ्य के लिए ऐसे कई नियम मैं निभा रही थी। 


वे चले गए में वहीं बैठ गई। कभी कभी लगता कितना बिना वजह है ये सब कुछ? 

पर अगले ही पल ख्याल आया

प्रतीक के परिवार में कोई नही है, वे उनकी कमी महसूस करते हैं शायद, इसलिए वे अपनो की तवज्जो चाहते हैं। इसमें बुराई क्या है। कुछ पल बालकनी में आकर खड़े हो जाने से उन्हें खुशी मिल जाती है तो यही सही। 


उनके जाते ही कुछ मिनिटों में ज्योति भी वहाँ आ गई। 

"दीदी आप हमेशा इतनी परेशान क्यों दिखती हैं!! 

परेशान नहीं रे कुछ सोच रही थी बस। 

"आप बहुत सोचती हैं। इतना टेंशन लेती क्यों हैं आप?"ज्योति ने कहा। वो एकटक मुझे ही देख रही थी। 

अचानक मुझे उसमे फिर से रक्षिता की छवि दिखने लगी। मैने मस्तिष्क को टोका। हिदायत दी कि उसे नहीं याद करना है।


अपने मन की बातें मैं किसी को कभी नहीं कहती थी। लेकिन मायके में रक्षिता और यहाँ ज्योति, मेरे मन की उधेड़बुन को बिना कहे तुरंत समझ जाती। 


एक बढ़िया सी चाय बना दूँ?  मुझे देखकर उसने पूछा।

नहीं अभी मन नहीं है चाय पीने का।


मन नही है? मेरी बात दोहराकर वह आगे बोली- चलिए कोई बात नहीं।

वैसे आज तो मैंने भी नहीं पी।

क्यों नही पी?

कुछ नहीं दीदी वही मेरे आदमी का टेंशन। रोज की चिक-चिक। आज तो सुबह सुबह ही  न जाने किन किन बातों पर बहस करने लगा, कहने लगा मुझसे कि मुझे कुछ भी नहीं आता मैंने भी कहा तुम खुद भी कुछ कर लिया करो। 

तो कहने लगा "अच्छा फिर तुम किस लिए हो? घर छोड़ कर चली जाओ मेरा। तुम्हें तलाक दे दूँगा ज्यादा जिबान चलाई तो।" 

ये सुनकर मुझे उसका जवाब जानने की  उत्सुकता जगी।

फिर तुमने क्या कहा? मैने पूछा। 


कुछ नही कह आई कि दे दो जल्दी ताकि मुझे बस एक अकेली जान का ही खर्चा उठाना रहेगा।

ये सब बताने के बाद वह कहकहा लगाकर हंस पड़ी।


क्या सभी पुरुष एक जैसे होते हैं!? सोचते सोचते हैं मेरे मुंह से वाक्य बाहर निकल गया।

क्या दीदी!?

कुछ नहीं चल चाय बनाने…


अच्छा और नाराज़ होकर उसने सच मे तुम्हें तलाक दे दिया तो?  किचन की और बढ़ते हमारे कदमों की चाल संग लय मिलते हुए मैंने पूछा। 


कुछ नही करेगा दीदी वो। ये सब कहने की बाते हैं। बस मुझे धमकाने की। पर मैं भी डरती नहीं। जो होगा, जब होगा तब देखेंगे। अभी से क्यों सोच कर दिमाग का दही करना। कहकर फिर से वह हँसने लगी में भी बदले में मुस्कुरा दी। 

उसकी बोली में  बिंदासपन तभी झलकता जब प्रतीक घर मे न होते। वरना उनसे बहुत डरती थी। और उनके सामने काम से कम और शालीन लहज़े में बात करती। मैं कहाँ उससे अलग थी मेरे साथ भी तो कमोबेश यही स्थिति थी। 


हां!! यह तो अच्छी बात है, लेकिन तुम्हें बुरा नहीं लगता मैंने उससे मुस्कुराहट के साथ पूछा। तब तक उसने चाय का पानी चढ़ा कर उसमें पत्ती डाल दी थी।


अरे दीदी ऐसी बातें ना दिल पर लेने की नहीं होती है। इतना स्ट्रेस तो मैं तो रोज खाना बनाते हुए, बनती सब्जियों के धुएँ में उड़ा देती हूं। रही-सही कसर कपड़ों पर साबुन ब्रश घिसकर उन्हें पीटते वक़्त इन्हें भी कूट कर पानी मे बहा देती हूँ। ये सब तो छोटी-छोटी चिंताएँ है।

चायकी पत्ते जैसे पानी मे घुल कर रंग छोड़ रही थी वैसे वैसे उसकी बातें भी मेरे चित्त में मन मस्तिष्क में घुलती जा रही थीं जैसे। 

उसकी बातें सुनकर मैं आश्चर्य में पड़ गई। 

उम्र में मुझसे शायद दो साल छोटी ही रही होगी ज्योति। पर उसका आत्मविश्वास और बेबाकपन देखकर मैं सच मे कभी कभी तो चकित हो जाती। न चाहते हुए भी अपनी तुलना उससे करने लगती। 

सोचती मैं कितना फर्क है उसके और मेरे  शिक्षा, पद, नाम, माहौल, स्थान और व्यवहार में!! लेकिन फिर भी आत्मविश्वास तो ज्योति का गजब है !! और जीने के प्रति उसका नजरिया भी! उसमे जीवन जीने की ललक थी जीवन से भरपूर थी वह!! जीवन का व्यवहारिक अनुभव मुझसे कहीं ज्यादा था उसे। कभी-कभी उससे बहुत कुछ सीख लेने की इच्छा होती।


आज भी मैं उसकी बात सुन सोचने पर मजबूर हो गई। उसकी बात सुनकर लगा,  रात को ना प्रतीक ने न बाद में कुछ कहा, ना सुबह उठकर उस बात का कोई जिक्र किया। अगर वे इस बात को लेकर गंभीर होते तो सुबह उनका व्यवहार इतना सामान्य न होता। ना तो सुबह चाय बनाते ना मेरे साथ बैठकर पीते। न ही मुझसे बात करते। यह सोचकर मैं भी थोड़ा निश्चिन्त हो गई। कि शायद गुस्से में उन्होंने ये कहा हो। 


ज्योति के साथ बैठकर उसके हाथ की मजेदार चाय पी,  और तैयार होकर अपने ऑफिस जाने के आने के लिए निकल गई। 


शाम को अपना काम खत्म कर दिनभर की मानसिक थकान खत्म करने के लिए एक चाय मंगवा कर पी। 

जैसे ही बाहर निकली तो मोबाइल की मैसेज टोन ने मुझे डिस्टर्ब किया।

प्रतीक का नाम फ़्लैश हुआ। मुझे बेहद आश्चर्य हुआ क्योंकि आफिस जाने के बाद तो वे वहीं के हो जाते। बीच मे किसी भी समय न वे कभी मेसेज करते थे, न ही कॉल। मैने मैसेज बॉक्स खोला तो लिखा था,  

परसों की टिकट करवा रहा हूँ। 

उनका मेसेज देख  मेरी धड़कन फिर बढ़ गई चेहरे पर चिंता की कईं लकीरें फिर उभर आईं। 

कुछ समझ पाती उसके पहले ही माँ का फ़ोन आ गया। मैं और  बुरी तरह घबरा गई।

इन्हेंने माँ को भी कह दिया सबकुछ? हद है ऐसे बात नही करनी मेरी माँ से  लेकिन शिकायत करने को तुरन्त फ़ोन कर दिया!? मुझसे बात करते। मैं सोचती रही माँ को क्या कहूँगी? तब तक फ़ोन बजकर बन्द हो चुका था। 

दुबारा फोन की घण्टी बजी...


क्या होगा आगे क्या बच पायेगा प्रतीक और प्रेरणा का ये उलझन  से भरा रिश्ता? प्रेरणा माँ को क्या समझाएगी और कैसे? क्या मां उसकी बातें समझ पाएँगी? रक्षिता की कहानी आखिर क्या है? सभी सवालों के जवाब जानने के लिए पढ़ते रहिए धारावाहिक "मेरा क्या कसूर"

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