मेरा क्या कसूर episode 1





मेरा क्या कसूर भाग -1

अलमारी साफ करते हुए एक ड्राअर से रक्षिता का दिया हुआ ब्रेसलेट नीचे गिरा। जिसे देखकर मेरे मस्तिष्क पटल पर वह घटना आज फिर से ताजा हो गई जिस पर हज़ारों बार चिंतन-मनन कर परेशान रहने के बाद, बड़ी मुश्किल से मैं भुला पाई थी।

ब्रेसलेट देखते ही मुझे उसके चमकते श्वेत मोतियों में जैसे रक्षिता का चेहरा दिखाई देने लगा। उसकी आवाज़ मेरे कानों में सुनाई देने लगी।
कैसे वह उस दिन फ़ोन पर चिंता से पूछ रही थी-

"माँ कैसी है दीदी?"
माँ की इतनी चिंता होती तो ऐसा कदम उठाती तुम? मैने फटकारा।
"फौरन घर आजाओ। सब तुम्हारी बात मान गए हैं।"

"ये किसने कहा आप से दीदी!? बुआजी ने!?

"तुम्हें कैसे पता तुम्हारी बुआजी यहाँ आई हुई हैं!?"

"मैं घर नहीं आऊँगी दीदी!"
मेरी बात के जवाब में बस उसने यही कहा था।

देख रक्षिता! तू हमेशा कहती है न, "दीदी! मैं आपकी बहुत रिस्पेक्ट करती हूं।"
अगर थोड़ा भी मुझे अपना मानती है, और सच मे मेरा सम्मान करती है तो कल तक घर आ जाना। बाकी तेरी मर्ज़ी...।
उसे आदेश देकर मैने फोन काट दिया।

भाव जाल फेंक मैने उस बिचारी को फंसा लिया था। वह नहीं आना चाहती थी। क्योंकि आने के बाद क्या होना है, उसे लेकर तो वह पहले से आश्वस्त थी। पर फिर भी वह आई!
सिर्फ मेरे लिए!

काश! मैं उस दिन उसे न बुलाती। काश वह जहाँ थी वहीं रहती। तो शायद मेरी उससे बात हो पाती। आखिर कहाँ है रक्षिता तू ? तेरी चुलबुली हंसी, तेरी शरारतें तेरा वो सब से घुल मिल जाना, सबको खुश रखना, बहुत बहुत याद आता है। मन ही मन सोचते हुए वह कब ज़ार ज़ार रोने लगी उसे ख़ुद पता नही चला।

"प्रेरणा……! प्रेरणा……!"
"चलो खाना लगा दिया है।"
मैं कब से डाइनिंग टेबल पर तुम्हारा वेट कर रहा हूँ..!? पतिदेव की पास आती आवाज़ सुनकर, मैंने आंसुओं से भीगे उस  ब्रेसलेट को अपने दुपट्टे से पोंछ फिर से ड्राअर के हवाले किया और उनके कमरे में आने के पहले ही डाइनिंग एरिया की और बढ़ गई। अपने ऑंसू भी पोछ लिए हालांकि मेरी आँखों मे आंसुओं पर न तो प्रतीक का ध्यान जाने वाला था और न उन्हें इस से कोई सरोकार होता।

गर्मियों का अलसाया हुआ इतवार था,  मगर हफ्ते में एक ही छुट्टी होने से आज का दिन भी घर के कामों के नाम होता था। अलमारी साफ करना, आज के ढेर सारे कामों की लिस्ट में शुमार हुआ था। लेकिन यह करते हुए आज रक्षिता की यादों ने मुझे घेर लिया। मेरा मन बड़ा खराब हो गया था। वह मेरे बेहद बेहद करीब थी। और आज मुझे पता ही नहीं!
कहाँ है!? क्या कर रही है!? क्या उसे कभी मेरी याद नहीं आती होगी!? इसी उधेड़बुन में चलते-चलते मैं सेंटर टेबल से टकराती बची।

"अरे देखो!" "संभल कर" पतिदेव के आगाह करने पर मैं उसकी यादों से एक झटके में बाहर आगई।
और उनके पास वाली कुर्सी पर बैठ गई।

"हर वक्त कहां खो जाती हो प्रेरणा!? ना तुम बिना टकराए चल पाती हो, ना बिना कुछ गिराए रसोई में काम कर पाती हो।
कभी गैस पर दाल रखकर कर भूल जाती हो, कभी चाय रखकर!"
"कितनी आवाज़ें दी तुम्हें तुमने जवाब भी नहीं दिया!"

"वो मेरा अवचेतन म...!"

"न! न! ये तुम्हारी साइकोलॉजी की क्लास बाद में... चलो खाना खा लो पहले मुझे बहुत भूख लगी है।"
मैं उन्हें अपने मन की कोई थ्योरी समझा पाती उसके पहले ही उन्होंने मेरे अंदर की मनोविज्ञान प्रेमिका को भगा कर अपनी पत्नि को तुरन्त खाना खाने का आदेश दे डाला।

कहाँ खो जाती हो आखिर? मेरे चेहरे के आते-जाते भावों को देखकर उन्होंने फिर फायर कर  दिया।

"हे! ईश्वर! इनकी नज़रें कितनी तेज़ हैं! सीआईडी में होना था।"
मन में सोचकर, इस सोच को तुरन्त वहीं ब्रेक लगा पहले उनकी बात का जवाब दिया। वरना फिर मैं उलझ जाती, अपनी ही सोच की श्रंखलाओं में। और बाध्य हो जाती उनके एक और सवाल का जवाब देने के लिए।

"अरे! नहीं कुछ नहीं, कल पढ़ी एक किताब के बारे में कुछ सोच रही थी।" कह कर हमेशा की तरह इस बार भी उनके सवाल को टालकर मैं खाने पर ध्यान लगाने लगी। खाना अभी तक गर्म था। जबकि उसे बनाए हुए मुझे काफी समय हो चुका था। गर्मी ही इतनी ज़्यादा थी। कुछ असर गर्म खाने का  कुछ रक्षिता की यादों का, मैं अपनी प्रकृति के विपरीत धीरे-धीरे खा रही थी।

"क्या हुआ? अमूमन तो तुम्हें खाने को ज्यादा समय देना भी  वेस्ट ऑफ टाइम लगता है। आज खाने पर इतनी मेहरबान कैसे?"

जवाब में मैं बहुत कुछ कहना चाहती थी, पर माँ की नसीहतें एक बार फिर मन की इच्छाओं पर भारी पड़ गईं।

"कुछ नही गर्म है ज्यादा। प्लेट में चम्मच चलाते हुए बिना नज़रे उठाये मैने कह दिया।"

"कुछ हुआ है तुम्हें? खाना भी ठीक से नहीं खा रही? मां की याद आ रही है क्या।?" यंत्र चलित से अपने रटे-रटाये सवाल पूछ, वे अपना कर्तव्य निभा मेरी परेशानी से फारिग हो खाना खाने में मगन हो गए।

"हाँ…!शायद…! मैने धीरे से कहा।"

तो खाना खा कर फोन कर लो उन्हें।

"आप बात करेंगे? पूछते ही पछतावा हो चुका था मुझे।"
"मेरी तरफ से तुम प्रणाम कह देना। थोड़ा ऑफिस का काम बचा है, मैं  लंच के बाद कर लेता हूँ।" जवाब भी आशानुरुप ही मिला।

"ठीक है।" अंदरूनी भावों को मन में दबा, संक्षिप्त सा उत्तर दे, मैं भी खाना खत्म करने में लग गई।

खाना खाकर प्रतीक बेडरूम में अपने लैपटॉप के साथ व्यस्त हो गए। सारे बर्तन इकट्ठे कर वाशबेसिन में डाले। बाकी समान किचन में यथास्थान रख, टेबल की सफाई कर, हाथ मे फ़ोन ले, मैं गेस्ट रूम में बैठ गई।

"हेलो" कॉल रिसीव होते ही मैने कहा।
"अरे…! क्या बात है…! आज हमारी व्यस्त बिटिया को याद कैसे आ गई हमारी!?" माँ की आवाज़ में झलकती खुशी साफ सुनाई दे रही थी।
जवाब में मैं चुप ही रही। कहती भी क्या? जहाँ परिजनों से दूर रह रहे बच्चे चिंता से उन्हें हर दिन नहीं तो हफ्ते में दो तीन बार तो फोन कर ही लिया करते थे, वहीं मुझे उनसे बात किए दिन तो क्या कभी कभी महीना हो जाता। मिलने के बारे में तो सोच भी नही पाती। हमेशा माँ ही मुझे फोन करतीं। उन्हें खुद से फ़ोन तो मैंने शायद तब ही लगाया होगा जब कोई काम रहा हो।

"क्या हुआ कहाँ खो गई फिर?"  मां मेरी चुप्पी में छुपे शोर से वाकिफ थीं।
"कहीं नहीं मां! कैसी हो!?"
"मै तो अच्छी हूँ। तू बता कैसी है!? जंवाई सा कैसे है?"
"हम दोनों ठीक हैं माँ! प्रतीक जी भी आपको प्रणाम कह रहे थे।"

"खूब-खूब खुश रहें वे और मेरी बेटी भी। दोनों को ईश्वर लंबी उम्र दें। सारी खुशियाँ मिले तुम्हें।  किसी की बुरी नज़र न लगे।"

माँ ऐसी ही होती है ना!? एक प्रणाम पर आशीषों की झड़ी लगा देती हैं। निस्वार्थ…!निश्छल…! प्रेम से परिपूर्ण…! दुनिया में और कोई रिश्ता माँ सा क्यों नही होता?

"अरे बस करो माँ!"
इस बार स्वयं ही मैंने अपनी मनोविज्ञान कक्षा से बाहर आते हुए कहा।
गर मैं न रोकती तो शायद 15 मिनट तक उनका आशीर्वाद समारोह चलता। और इतनी देर में मेरी सोच की श्रंखलाएँ दुनिया के सारे पर्वतों से ऊँची हो जाती।

"बस क्या...!? मेरा बस अगर चले तो दुनिया की हर खुशी तेरे और गुड्डू के नाम कर दूँ। उनका प्रेम फिर उमड़ा।"

"गुड्डू और पापा कैसे हैं? और दादी?"

"सब ठीक हैं सब तुझे याद करते हैं।" "खासकर दादी।"
"बहुत सी बातें भूल जाती हैं अब। कब खाया? कब नहाई? उम्र के इस पड़ाव पर याद नहीं रहता। पर तेरा बराबर पूछती रहती है। और तेरी बेस्वाद चाय को याद भी करती हैं!!!"
कहकर माँ हंस पड़ी।
उनकी हँसी उस वक़्त मेरे कानों में मिश्री सी घुल रही थी। कुछ परिवार की कमी, कुछ रक्षिता की महीनों बाद सब पिंजरे तोड़ कर आई याद, सबके मिलेजुले असर ने आंखों में काफी देर से जब्त कर जमा रखी कुछ बूंदों को पिघलाकर गालों पर धकेल ही दिया।
"आज तेरी पसंदीदा भिंडी बनाई थी तब भी दादी ने बहुत याद किया।" सुनकर चेहरे पर बरबस मुस्कान आ गई।
आंसुओं के साथ मुस्कान का दृश्य ही मोहक होता है। बात करते हुए अचानक सामने लगे दर्पण में अपने चेहरे पर नज़र पड़ते ही मुझे एहसास हुआ।

"माँ…!सुनो,
"हाँ बोल न!?"
"वो… रक्षिता का कुछ पता...चला?"
"कहाँ!? उसकी मां भी बेचारी सबसे छुप कर मेरे पास बैठ कर रोया करती है।"
"आप उन्हें समझाती क्यों नही? उनकी अपनी बेटी है वह। उन्हें कहिये जाकर पुलिस में शिकायत दर्ज कराएँ।" मैने कहा।

"तेरे कहने पर पहले भी दो बार कहा न! और तूने खुद भी तो कोशिश की थी।
" कितनी बुरी तरह रक्षिता की बुआ ने तुझे लताड़ा था? ये कहकर कि हमारे घर के मामलों में दखल देने की जरूरत नहीं।"
"मैने तो उनके इस बर्ताव के कारण उनसे सम्बन्ध ही खत्म कर दिए थे पर तूने ही कहा रक्षिता की माँ का आप के अलावा कोई सहारा नहीं है। आप उनसे बात करना बंद न करना।
और वैसे भी रक्षिता के चाचा और  बुआ बहुत लड़ाकू हैं उन्हें पता चला तो फिर बेचारी सुलक्षणा की मुसीबत हो जाएगी।"
माँ एक साँस में सब बोल गईं।

"तो वे अपनी बेटी की कोई भी सुध लिए बिना जीवन भर ऐसे जी लेंगी?" मैने चिंतित होकर पूछा।

"पता नहीं बेटा! अब तो वह खुद से आ जाये या कोई चमत्कार इन्हें इत्तेफाकन मिला दे! सुलक्षणा तो  भगवान से बस यही मनाती रहती है।"

"मैं …फिर से… कोशिश करूँ…?" डरते -डरते  मैंने कहा।

"बिल्कुल नहीं!! तेरी अपनी गृहस्थी अभी शुरू हुई है। कोई परेशानियाँ मोल नहीं लेगी तू।"

"पर माँ जैसे आप मेरी फिक्र कर रहे हो रक्षिता भी तो किसी की बेटी है।"

"उसकी चिंता करने का फर्ज उसके परिवार का है।"
"देख प्रेरणा मैं जानती हूँ तेरा उससे बेहद लगाव था। मेरा भी था हम सबका था। लेकिन उसके साथ जो हुआ शायद उसकी नियति थी। आगे जो होगा वह भी तय है। तू अपने काम, घर और जंवाई सा पर ध्यान दे बस।" माँ ने आदेशात्मक स्वर में कहा।

"आज मुझे उसका दिया ब्रेसलेट मिला अलमारी साफ करते हुए।"मैंने मां से कहा।

अच्छा!! इसीलिए मेरे सलाह मशवरे आज हवा हो गए?

"माँ उसका मासूम चेहरा घूमता है मेरी आँखों में। मुझे लगता है, मैं ही गुनहगार हूँ उसकी। जिसे वह सबसे अधिक प्रेम सम्मान की नज़र से देखती थी वही उसके लिए ग्रहण बन गई।"
मुझे रात को नींद नहीं आती कभी कभी यही सब सोचकर।"
"प्रतीक कईं बार मुझे पूछते हैं कि क्या सोचती रहती हो? कईं बार मन कहता है बता दूँ उन्हें सब। शायद वे ही कुछ मदद कर पाएँ।"

नहीं!!! प्रेरणा न तो तू उन्हें उलझायेगी इन सब में और न तो उलझेगी समझ गई अच्छे से?

"अब छह महीने हो चुके हैं हमारी शादी को। आपको लगता है अब भी उनके मेरे बीच कोई बात छिपी होनी चाहिए?"

"ये मुझे नही पता, इतना पता है कि जवांई सा को रक्षिता के बारे में पता चलेगा तो... पता नहीं कहीं वे तेरे बारे में भी ग़लत न सोचें..।"

"क्या और क्यूँ सोचेंगे माँ इन सब बातों से मेरा क्या लेना देना।?" मैने मासूमियत से कहा।

"लेकिन लोग जोड़ते हैं बेटा! तुझे अच्छी तरह पता है न उसने क्या किया?"
"क्या मतलब आपका!! उसने क्या किया!? कोई गुनाह किया उसने माँ!?" मैं एकदम जैसे बरस पड़ी।

"देख प्रेरणा ये यह सब तेरी बड़ी-बड़ी आदर्शवादी बातें ना किताबों में ही अच्छी  लगती हैं। जमाना आज भी नहीं बदला। अधिकतर लोगों की सोच आज भी वही है जो सालों पहले थी।  खासकर शादी ब्याह के मामलों में। मेरे  हिसाब से तो तुझे उन्हें कुछ नहीं बताना चाहिए आगे तेरी मर्जी...।" माँ ने गुस्सा दर्शाते हुए दुनियादारी की सीख में एक और पन्ना जोड़ा।

"ठीक है। नहीं कहूंगी।"
इतने में डोर बेल की आवाज़ आती है।
"मैं फिर बात करूँगी माँ! ज्योति आ गई शायद।"

"ठीक है।" माँ का जवाब पाकर मैंने फोन रख दिया।
पर विचारों के इस आदान प्रदान ने सिरदर्द को आमंत्रण दे दिया था। अक्सर इस मामले पर बहस में मैं माँ से हार ही जाती थी।  विचारों के एक उलझे जाल के साथ मैं दरवाज़ा खोलने के लिए बढ़ गई।

कौन है रक्षिता जिसके बारे में प्रेरणा, प्रतीक को नहीं बता पा रही? आखिर क्यों वो खुद को रक्षिता का गुनहगार समझती है? और क्या रिश्ता है रक्षिता का प्रेरणा से? जानने के लिए पढ़ते रहें मेरा क्या कसूर का अगला भाग।

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टिप्पणियाँ

  1. सच में आपकी यह कहानी दिल की गहराइयों तक जाती है.. उत्कृष्ट लेखन के साथ साथ भाव पक्ष कला पक्ष का अद्भुत समन्वय देखने को मिला...
    आप इस विधा में पारंगत हैं आपके स्वर्णिम भविष्य की अनंत शुभकामनायें 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏👌👌👌👌👌👌👌👌













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    1. प्रोत्साहित करती इस प्रतिक्रिया के लिये आपका हार्दिक आभार🙏

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  2. कहानी समाज में जो होता है,उससे रूबरू करवाती हैं 🙏🙏

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  3. Behad hi khubsurat varnan .....hrady ko chhuti hue ek ek shbd ki aahat aise mn ko tatolne p mjbur kr rhi hai jaise jeevan ki koi kdi hmse milke bichad gyi h...kalpana ko vastvikta k muhane pr lakr aapki rachna hrady ko chhu gyi..💖💖

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  4. बहुत सधे हुए शब्दों और भावों के साथ उत्सुकता को बढ़ाता अध्याय 👌👌👌👌👌

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  5. waaah divya saa bhut hi sundar lekhn fst line se end tk hr kirdar hr ghtna jese pdhte pdhte mehsus kr pa rhe atti sundar mnoram

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