मेरा क्या कसूर episode 5

 

मेरा क्या कसूर एपिसोड 1

मेरा क्या कसूर एपिसोड 2

मेरा क्या कसूर एपिसोड 3

मेरा क्या कसूर एपिसोड 4

पिछले एपिसोड में आपने पढ़ा- प्रेरणा की अपनी माँ और भाई से फोन पर बात होती है। भाई के रिश्ते के लिए कोई परिवार मिलने आ रहा है।  वह चाहता है कि प्रेरणा उस वक्त वही रहे। प्रतीक उसे स्टेशन तक छोड़ने आता है। प्रेरणा ने खुद से वादा किया है कि वह अपने आपको किचन एक्सपर्ट बना कर ही छोड़ेगी। और इस लक्ष्य के पूरा होने तक वह किताबों से दूर रहेगी। सफर में समय काटने के लिए उसे कोई जरिया नहीं मिलता वह ट्रैन के बाहर देख रही है।
अब आगे-

मेरा क्या कसूर - एपिसोड 5


रक्षिता मैं हूँ तुम घबराओ मत… मैं हूँ तुम्हारे साथ। छोड़ दो उसे कोई हाथ नही लगाएगा। पुरज़ोर विरोध की जोरदार तीखी चीख  मेरे मुख से निकली...
 
मेरे चीखने के बाद  किसी ने मेरा हाथ पकड़ कर जोर से खींचा बस करो मैडम क्यों चिल्ला रही हो?
क्या हुआ कोई परेशानी है? एक औरत मुझे जोर से हिलाते हुए बोल रही थी।
मुझे समझ आया कि बाहर देखते हुए मुझे झपकी लग गई थी। और मैं सपना देख रही थी।
सॉरी वह शायद कुछ डरावना सपना देखा मैंने!
मैं शर्मिंदगी से भर गई।
कोई बात नहीं सब ठीक है देखिए। लीजिए, पानी पी लीजिए। उन्होंने मेरी और बोतल बढ़ते हुए कहा।

नहीं! थैंक यू! मेरे पास है, कहकर मैंने पर्स से अपनी बोतल निकाली।  पानी घूँट घूँट कर अंदर गया तो घबराहट थोड़ी कम हुई।
बहुत बुरा दिल दहला देने वाला सपना था। रक्षिता के बारे में ऐसा सपना क्यों आया मुझे!? वह किसी मुसीबत में तो नही?

हे प्रभु! वह जहाँ भी है उसकी रक्षा करना।
ठीक हो आप? सामने बैठी महिला ने एक बार फिर पूछा। जी ठीक हूँ बदले में एक मुस्कान के साथ मैंने जवाब दिया। वे भी मुस्कुरा कर अपने फोन में व्यस्त हो गई। न जाने लोग दिनभर इस निर्जीव प्राणी के साथ कैसे खुश और व्यस्त रह लेते हैं? मेरा बस चले तो मैं... उस निर्जीव प्राणी के बारे में  न जाने क्या-क्या बोल लेने के बाद मन ने जवाब दिया... और इसी फ़ोन ने एक बार रक्षिता को ढूंढ निकाला था।
पर दुबारा आज तक उसका कहीं अता पता नहीं है। कहाँ होगी आखिर…!?
लगातार शोर मचाते  ख्यालों को झटक मैंने सोचा कि उधर जा ही रही हूँ इस बार तो उसके बारे में कुछ ना कुछ पता जरूर कर के आऊंगी।
तकरीबन 4 घंटे के बाद मैं स्टेशन पर आ चुकी थी। गुड्डू ही मुझे लेने आया था। पूरे 6 महीनों के बाद मैं उसे देख रही थी।

"कितना बदला सा लग रहा है तू।?'
"क्यूँ मोटा हो गया क्या?"
"मोटा और तू!!!? तू तो दिन  में 10 बार खाए न तब भी मोटा न हो।"

सुनकर वह हँसते हुए कहने लगा, बस माँ का डिपार्टमेंट आज तूने भी पकड़ लिया दिनभर वो मुझे  कुछ न कुछखिलाने के पीछे पड़ी रहती है। चल अब जल्दी। रास्ते मे उसने एक दुकान पर गाड़ी रोकी।
अब क्या लेना है? मैने पूछा।
समोसे मेरी आँखें चमक उठी और बालूशाही!!

माँ ने कहा था जरूर लेकर आना तुझे बहुत पसंद है ना!! माँ बालूशाही बना नही पाई इस बार समय नहीं मिला न!
अरे तो रहने दे ना! इतना जरूरी थोड़ी है!
न बाबा! माँ बोली है प्रेरणा कितना भी ना नुकुर करे लेकर ही आना। सुनकर ही मुस्कान आ गई मेरे चेहरे पर और मुँह में पानी भी।

रास्ते मे हर एक चीज़ पर मेरी नज़र थी। सिर्फ छह महीने में  ये शहर कितना बदला बदला सा और पराया सा लग रहा था। जहाँ मैं सालों से रहती है थी।  ये वही रास्ते हैं जिनसे मैं रोज़ कॉलेज आया जाया करती थी। पर आज सब बहुत नया सा लग रहा है।

"तुझे तो हमारी याद आती नहीं होगी ना जीजी!? अचानक गुड्डू ने शिकायती लहजे में कहा तो मेरा ध्यान इन नजारों से हटकर उस पर गया। अब मैं उसे क्या बताती कि मैं घर के लोगों से मिलने के लिए कितना तरसती हूँ। किसी को फोन नहीं करती तो सब को यह लगता है कि शायद मैं अपने जीवन में बहुत खुश हूं, व्यस्त हूं, लेकिन उसके पीछे की सच्चाई तो मैं ही जानती हूँ।
याद तो आती है रे! बस समय नहीं मिल पाता मैंने उसे जवाब दिया।
लगभग पंद्रह-बीस मिनिट के बाद गुड्डू की बाइक ने हमारे घर के ठीक सामने ब्रेक लगाया।
लाइन से एक और बने मकान, उसके ठीक सामने सड़क के पार बड़ा सा मैदान और सबका साझा सार्वजनिक बगीचा।
जिसमे जो चाहे वो पौधे लगा देता। आसपास चहचहाती हुई चिड़ियाएँ जैसे मेरे आने की खुशी में जोर जोर से गीत गा रही थीं। ठंडी हवा ने गालों को स्पर्श किया तो लगा जैसे कोई अपना गालों को थपथपा कर लाड़ लड़ाने के साथ शिकायत भी कर रहा हो कि बहुत दिन बाद आई। मैं महीनों बाद बाहर खड़ी इन सबका बस आनंद ले ही रही थी कि गुड्डू ने टोका चल न अंदर, मैं जा रहा हूँ। कहकर वह आगे बढ़ गया तो मेरी नजर  उसका पीछा करती हुई अपने घर पर पड़ी। कितना सुकून मिलता है न वहां आकर जहाँ आपका बचपन बीता हो!? पत्ता पत्ता भी अपना सा लगता है। सारी भूली बिसरी यादें दिमाग के हिस्सों में जैसे रेस लगाने लगती हैं।

सहसा नज़र न चाहते हुए भी रक्षिता के घर की ओर चली गई। हमारे घर के बाद एक घर छोड़कर रक्षिता का घर था। जब तक वह थी  इस घर के बाहर तक उसकी आवाजें दिनभर गूंजती रहती थी।

"दादाजी पानी गर्म हो गया है नहा लीजिये।" "ओ मम्मी गैस बन्द कर दो न ज़रा, मैं भूल गई दूध रखकर।" "चिंटू तू न मार खाएगा अभी पोंछा लगाया था सारा घर खराब कर दिया, पैर रख के।"
उसकी ऐसी आवाज़ें उस घर से लगातार आती रहती थीं।  एक रौनक सी थी उससे। ना सिर्फ उसके घर में वरन पूरी कॉलोनी में ही। आज तो एकदम  सन्नाटा-सा वहां तक पसरा हुआ था। मैं अंदर जा ही रही थी कि अचानक उसकी बुआ घर के बाहर निकलते हुए दिखाई दी।  वे बाहर गेट तक तक आईं तो मैंने संस्कारवश उनके चरण स्पर्श करने चाहे। वे हाथ के इशारे से मुझे रोकती हुई थोड़ा अंदर होकर  खड़ी हो गईं।

"शादी हो गई अब भी याद नही रहता तुम्हे!? द्वार पर खड़े व्यक्ति के चरण नही छूते कभी। 
आहत मन से मैंने अंदर बढ़कर उनके पैर छूकर औपचारिकतावश पूछा
"कैसी हैं बुआ जी!?"
" ठीक है हम।"
बेरुखी से कहकर वह निकल गईं। बड़ा अजीब सा बर्ताव था उनका। मतलब अब तक वे पिछली बातें भूली ही नहीं थी। रक्षिता के बारे में मेरा कुछ कहना, उन्हें उनके परिवार में दखलअंदाजी लगता था।

अरे! क्या बाहर खड़ी उन पेड़ पौधौं से ही मिलती  रहेगी? हम कब से इंतजार कर रहे हैं !
मां की आवाज ने मुझे उनकी ओर दौड़ उन्हें गले लगाने को मजबूर कर दिया। मैं उनके गले लगी न तो ऐसा लगा जैसे बरसों की थकान और चिंताएँ एक पल में कहीं छुप के दुबक कर बैठ गईं हैं।
एक आंतरिक सुकून मिल गया मुझे। ऐसा सुकून मां के अलावा शायद कोई और नहीं दे सकता।

उनके पीछे ही पापा भी खड़े हैं।
उनके चरण स्पर्श करते  ही स्वतः ही उनका हाथ सिर पर स्पर्श कर जाता है। इसके अलावा पापा के स्पर्श की कोई स्मृति नही रही है कभी। इसी एक क्षणिक स्पर्श से हमेशा मेरी आंखें भर आती हैं।  और आज भी वहीं हुआ।
लड़कियों का जीवन कितना कठिन होता है ना! एक ही बार मनुष्य योनि मिली है फिर भी अपने जन्मदाता के साथ पूरा जीवन जी ही नहीं सकती!?

मैं छोटी थी ना तब खूब लड़ा करती थी माँ से। ये ऐसा नियम क्यों बनाया है कि लड़कियां घर छोड़कर जाए, जिससे मेरी शादी होगी वह यहां आकर क्यों नहीं रह सकता!?
अच्छा मुझे एक बात बताओ अगर कल को गुड्डू किसी से शादी करेगा और उसके घर जाकर रहने लगे तो तुझे अच्छा लगेगा?

"बिल्कुल नहीं !

लेकिन जो भाभी अपना घर छोड़कर आएगी उनके मां-पापा को बुरा नहीं लगेगा और मेरा…मेरा यूँ चले जाना... वह आप लोगों को सही लगता है!?

हे राम! मेरी भोली बाँवरी! अच्छा नही लगेगा।
मगर रीत है बेटा! और सबको पता होता है। पहले से तय ही है कि लड़की को जाना ही होता है।  इसलिए लड़कियों के लिए तो सब मन बना कर बैठे होते हैं न।
वही तो न माँ। ये मन को मनाना हमारे लिए ही क्यों बनाया है?
अब हम यही नियम लड़कों के लिए बना देते हैं। फिर उनके लिए भी सब मैन बना कर रखा करेंगे।

भगवान!! तेरे कहने से रिवाज नही बदल जाएंगे। ये तो बरसों से चल रही रीत है। माननी ही होती है।
जब माँ इस तरह सब थोप देतीं तब मैं कुछ नही कह पाती।
जब आप कोई चीज मान लेते हैं तो उसके बाद उसमें तर्क कहां चलते हैं!? तो मैं भी माँ को किसी तरह से कुछ नहीं समझा पाती।

स्मृतियों में उलझी मैं और मेरे साथ भाव विभोर माँ -पापा!! हम सब अंदर दादी के पास आकर बैठ गए थे। वे भी बहुत खुश हो गई। एक बार याद दिलाने पर ही पहचान गई मुझे। खूब प्रेम से काफी देर दुलारती रहीं। ढेर सारी दुआएँ देती रहीं।

आलम यह था कि मेरे आने से घर में उत्सव  का सा माहौल हो गया था। दादी के गले लग उनकी गोद में सिर रख मैंने घंटो बातें की। इतने समय बाद आज किसी जन्नत से कम नहीं लग रहा था मुझे अपना घर। माँ ने मेरे पसंद की ना जाने क्या-क्या चीजें बना कर टेबल पर सजा दी थीं।

खाने के बाद दादी ने मेरे हाथ की बेस्वाद चाय पीने की फरमाइश कर दी थी। कितना अपनापन सा था! हर कोई यहाँ मुझसे, मेरी अच्छी बुरी सब आदतों से खुश था हर कुछ अपनाने को तैयार। आज ऐसा लग रहा था जैसे मेरा बचपन फिर से लौट आया है।
कुछ देर बाद माँ आने वाले मेहमान परिवार के बारे में मुझे बताने लगी।
इसी शहर में रहते हैं। लड़की के पिताजी का फर्नीचर का शोरूम है उनका। एक बेटा भी है अभी कॉलेज में है। लड़की बहुत सुंदर और संस्कारी है।
और खाना तो सच!! क्या बनाती है!!!
सुनकर मुझे न जाने क्यों हँसी आगई।

"हँस क्यूँ रही है ऐसे।" माँ कहने लगी।
बस ये सोच कर कि आप सबकी गाड़ी खाने पर आकर क्यों अटक जाती है?
सबकी मतलब!? और किसकी!?
अरे कुछ नहीं।
माँ उसकी एजुकेशन आपने बताई नही तो ज़ाहिर है आपने पूछी भी नहीं होगी। और भी कई गुण होंगे उसमे कोई और गुण आपने देखा भी या नही?
माँ को सोच विचार में देख मैंने झट से बात बदलकर  कहा
वैसे माँ इस बार आप मुझे भी कुछ खास खास डिश बनाना सिखा देना प्लीज़...
माँ ने मुझे कुछ पल आश्चर्य से देखकर खुशी से हाँ कह दिया।

रात को सबसे ढेर सारी बातें करने के बाद लेटी तब भी थकान या आंखों में नींद का कोई एहसास नहीं हो रहा था। घंटो अपने कमरे में बैठकर ढेर सारे कोट्स और क्राफ्ट वर्क से सजी मेरी बुक्शेल्फ को देखती रही थी मैं। देख क्या रही थी निहार रही थी। ये मेरे लिए किसी कुबेर के खजाने से कम नही था।

विषय की बात करुँ तो मुझे कभी कोई विषय अरुचिकर लगा ही नहीं। गणित, विज्ञान और अकाउंट भी उतना ही पसंद था, जितना मनोविज्ञान या दर्शनशास्त्र। इस बुकशेल्फ में हर विषय की किताबें थीं। मुझे अपने इस संग्रह पर जितना गर्व और जितना इन किताबों से लगाव था, मेरे दोस्त और रिश्तेदारों को ये उतना ही नीरस और उबाऊ लगता।
कुछ तो हर बार आकर माँ को घर से इस रद्दी को निकाल उस शेल्फ को किसी अच्छे काम के उपयोग में लेने की सलाह मुफ्त दे जाते।
एक दूर की चाची ने तो अपना "इंटीरियर नॉलेज" वाला अधूरा ज्ञान झाड़ते हुए मां को इसे मसाले के डब्बे और सुंदर क्रॉकरी रखने के लिए बेहतर और उपयोगी बता किचन में रखने की सलाह तक दे डाली थी। मुझे आज भी याद है उसके बाद मैंने उनसे कभी ठीक से बात ही नहीं की।

कुछ पल के लिए मन किया कि किताबें निकाल कर पुरानी यादें ताजा कर लूँ। सोचते-सोचते यंत्रचलित से हाथ वहाँ तक गए तो लेकिन फिर खुद को याद दिलाया कि मैंने खुद से वादा किया है, जब तक अच्छा खाना बनाना नहीं सीख लेती, अपने इस प्रेम को खुद से महरूम ही रखूंगी। अभी किसी किताब को हाथ नहीं लगाऊंगी। चाहे वह रेसिपी बुक ही क्यों ना हो क्योंकि मुझे पता है एक बार मैं पढ़ने बैठी तो.. बस पढ़ती ही रह जाऊँगी। प्रैक्टिकल और थ्योरी में अंतर तो होता है ना!

बातें, किताबें और खाना बनाने वाली बात से मुझे अचानक  ध्यान आया,
मैं बिल्कुल भूल ही गई कि यहाँ आकर प्रतीक को फोन ही नहीं किया। अब तो मेरी खैर नहीं। पर्स से मोबाइल निकाला तो देखा चार-पांच मिस्ड कॉल के साथ एक मैसेज भी था।
"थोड़ा तो रिस्पांसिबल बनो फ़ोन पर्स में बंद करके रखने को नहीं दिया है।"

क्या होगा आगे? प्रतीक इस घटना के बाद कैसे रियेक्ट करेगा? क्या गुड्डू की शादी तय हो जाएगी? रक्षिता के बारे में पता लगा पाने की इच्छा प्रेरणा के मायके में रहते हुए पूरी हो सकेगी?  जानने के लिए पढ़ें मेरा क्या कसूर का अगला एपिसोड

अगले भाग की लिंक👇

मेरा क्या कसूर एपिसोड 6

टिप्पणियाँ

  1. Divya saa.... Sachhi best part beti ko mayke aake jo anubhv aata hoga vo sunkr pdhkr b khushi hui... Sach me maa k gle lg sari thkan mit jati h...amazing divya saa i loved it so much

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