मेरा क्या कसूर episode 6


मेरा क्या कसूर एपिसोड 1

मेरा क्या कसूर एपिसोड 2

मेरा क्या कसूर एपिसोड 3

मेरा क्या कसूर एपिसोड 4

मेरा क्या कसूर एपिसोड 5


पिछले एपिसोड में आपने पढ़ा,  प्रेरणा अपने घर जा रही हैं ट्रेन में उसे रक्षिता के बारे में एक बुरा सपना दिखाई देता है। अपने घर पहुंच कर वह बहुत खुश है। घर के बाहर उसे रक्षिता की बुआजी मिलती हैं जिनका व्यवहार कुछ उसके प्रति ठीक नहीं होता। रात को सोते हुए अचानक उसे याद आता है की यहाँ आकर वह प्रतीक को यहाँ पहुँचने के बारे में बताना भूल गई।  फोन पर प्रतीक के कुछ मिस्ड कॉल और मैसेज भी होता है।अब आगे

मेरा क्या कसूर - एपिसोड 6

मैंने सिर पीट लिया। कभी-कभी खुद की बुद्धि और याददाश्त पर  बड़ा गुस्सा आता है। मैं क्यों इतना गुम हो जाती हूँ कैसे भूल गई मैं? उन्होंने निकलते हुए कहा था कि पहुँचकर मुझे फोन करना। कॉल किया तो दो बार रिंग बजने के बाद उन्होंने फोन काट दिया। दोबारा कोशिश की तो नंबर स्विच ऑफ बता रहा था।

लगभग 1 घंटे तक मैं कुछ मिनटों के अंतराल से फोन ट्राय करती रही। पर तब तक नंबर स्विच ऑफ ही बता रहा था। जाने यह गुस्सा फोन पर अब कब तक निकलेगा?
शायद अब सुबह ही ऑन होगा, आफिस के लिए निकलते वक्त।
मैंने सुबह उस वक़्त से कुछ मिनिट पहले का अलार्म लगा दिया अब नींद आने में शायद दस मिनिट भी नहीं लगे।

आश्चर्य हुआ मुझे खुद पर ही!! ये सोचकर कि फोन से दूरी बना कर रखने वाली इस प्रेरणा ने आज सुबह उठते ही सबसे पहले फ़ोन चेक किया। कोई रिप्लाई नही था। फोन अभी भी बंद ही था तो मैं घर के बाहर बने छोटे से बरामदे में  जाकर बैठ गई।

जब यहाँ रहती थी तो सुबह सुबह उठकर यहाँ बैठ डायरी लिखती थी। या फिर प्रकृति के मोहक रंगों को कैनवास पर उतारा करती। सहसा नज़र बाहर पड़ी तो सामने बगीचे में सुलक्षणा मामीजी, रक्षिता की माँ पूजा के लिए फूल तोड़ती नज़र आई।
मन किया जाकर अभी उनसे पूछ लूँ कि आप उसे ढूंढते क्यों नही? पुलिस को क्यूँ नही बताते? आखिर इतना समय हो गया वो किसी मुसीबत में हुई तो!?

फिर माँ की हिदायत याद आ गई। रक्षिता की बुआ की भी बातें याद आ गई जो पिछली बार यही सब खुल के कहने पर उन्होंने मुझे सुनाई थी।

"देख सुन ले प्रेरणा तेरे अपने जो विचार है ना वो अपने तक ही सीमित रखा कर। हमारे घर में किसी पर ज्ञान झड़ने की कोई जरूरत नहीं है। हमारे घर की बेटियां और हम देख लेंगे वह कहाँ है? कैसे है? क्या कर रही है? बेहतर है तू अपने काम से काम रख।"
अचानक से मन खराब होगया और मैं उठकर अंदर आगई।

माँ की पूजा खत्म हो गई थी और वे किचन की खटपट में लग चुकी थीं। सबका चाय नाश्ता बना रही थी। मैं जल्दी से नहाकर आई और किचन में माँ की मदद करने के लिए बढ़ी ही थी कि गुड्डू वहीं रसोई के दरवाजे पर हाथ रोक कर खड़ा हो गया।

"ना! ना! पाककला में अज्ञानी लोगों का रसोई में प्रवेश आज निषेध है।"
"ओ!! चल हट परे।  वरना खायेगा एक। अज्ञानी नही हूँ मैं।" मैने लताड़ा।

"अच्छा शादी के बाद मास्टर शेफ हो गई है क्या तू?" मुझे चिढाकर वह हँसा।
"देख गुड्डू मेरा दिमाग सच मे खराब है। साइड हो जा जल्दी से।" मैंने उसे कहा।

"फिर शुरू हो गए तुम दोनों!? एक की शादी हो गई दूसरे की जल्दी होने वाली है, कौन बोलेगा दोनों को ऐसे देखकर!?"
माँ ने मोर्चा संभाल लिया था।

ऐ! गुड्डू! मत परेशान कर न!!  माँ के ये कहने पर उसने दांत दिखाए और एक तरफ हो गया।

"वैसे आज हमारी बेटी किचन में क्या कर रही है सुबह सुबह!" माँ ने आश्चर्य से पूछा।

"माँ मैं आपकी हेल्प करूँगी।"

लो बोलो! हो गया रसोईघर का सत्यानाश!!! गुड्डू ने कहा।

मैं उसकी पीठ पर एक धौल जमाने की दिशा में हाथ उठा ही रही थी कि वह भाग गया।

माँ ने सबके लिए बनाई चाय कप के हवाले की नाश्ता रखा और ट्रे उठाकर किचन से बाहर निकलते हुए गुड्डू का साथ दे कहने लगी चल आ जा! पहले चाय पी ले। आज रिश्ता तय करवाना है। मेहमानों को भगाना नहीं है। हँसते हुए वे दादी के कमरे में प्रवेश कर गई।
पापा और गुड्डू भी बैठे थे। हम सबने दादी के साथ बैठ चाय नाश्ता किया।

नाश्ता कर ही रही थी कि मेरे मोबाइल का अलार्म बजने लगा मैंने तुरन्त फोन उठाया और फिर से ट्राई किया। अब घंटी जा रही थी पर रिसीव फिर भी नहीं हुआ। थोड़ी परेशान हो गई थी मैं और माँ ने  उन परेशानी की लकीरों को झट से देख लिया था।

क्या हुआ? परेशान क्यों है इतना? माँ की बात सुनकर गुड्डू और पापा की नजरें भी मेरे चेहरे और टिक गईं।
नहीं! कुछ नहीं! सवाल को टालकर, चाय पीकर मैं मां के साथ में किचन में चली गई।

शाम को सब मेहमान आने वाले थे और मां को बहुत सी तैयारियाँ  करनी थी। बाजार से भी कुछ खाने-पीने का सामान मंगवाया जाना था। मेरी कुकिंग एक्सपर्ट माँ ने ढेर सारी तैयारियां पहले ही की हुई थी।

कुछ ही देर में पड़ोस की सीमा काकीजी बाहर से "गुड्डूsss!" "गुड्डूssss"  की आवाज़ें लगाती हुई किचन में चली आई।

मैं पैर छूने झुकने लगी तो उन्होंने हमेशा की तरह टोक दिया।
अरे!! ना! ना!बिटिया कितनी दफा कहे न बिटियन लोग पैर नहीं छुवत हैं। बिटियन तो माता का रूप कहात हैं। 
कबै आई तुम ?
कल ही आई काकीजी।
अच्छा। और सबै ठीक ना।
हाँ! कह कर में मुस्कुरा दी।
आप कैसी हैं काकीजी?
अरे हम तो एकदम मौज में।
मुस्कुरा कर वो माँ की ओर देखकर बोली।
जे लो जिज्जी जे हरा हरा धनिया हमई लगाए थे बगीचे में। जेहि  डारियो आज फिर जो स्वाद औगो न दाल सब्जियन में खात राह जाई सब कोई।
हां बिल्कुल डाल दूंगी  
फिर मुझे देख कहने लगी।
अब देखो ना तुम्हाई अम्मा ने कित्तो तामझाम कर लेओ। अरे बिटियन वाले ऊ हैं कि तुम ? अव्वल बात तो खातिरदारी लाने तुमई को जाना था वहां उन्हैं को बुलवा लियै। अब लगे रहिन दिनभर चौके चुल्हन में। ऊ भी कइसन लोग बताओ!? जरा न सोचे हामी भर दी!!

क्या फर्क पड़ता है काकीजी! वो यहाँ आएँ या हम जाएँ? शादी तो दोनों की होनी है ना! तो दोनों में से किसी भी एक का महत्व कम कैसे हो जाएगा? बिना लड़की के हम गुड्डू की शादी कर तो नहीं सकते। मैंने बहुत सधे हुए शब्दों में भरपूर प्रेम और विनम्रता से उन्हें समझाने की कोशिश की।

हओ, बिटिया! पर लड़के बच्चे और लड़के के अम्मा बाबा का न दर्जा ऊंचा होत है। और बिटियन के अम्मा बाउजी को सब करन लागत है।
जईसन चलन हे बईसन ठीक है, बिटिया।
खैर हमउ को का करै का है। जात हूँ जिज्जी घरै। कल आत हूं मिठाई लाने (के लिए)। कहती हुई वे मेरी ओर देखते हुए बाहर निकल गईं।

"कैसी सोच है पैर छुओ तो लड़कियाँ पैर नही छूती। माता के समान होती हैं। और शादी के समय उसी माता समान लड़की का दर्जा लड़के वालों से नीचा कैसे हो जाता है?" मैं बड़बड़ाने लगी।

राम जाने! सोच है अपनी अपनी।  तू जाने देना!  लोगों का काम है बोलना। हमारा काम हमें करना है ना? और पता है अच्छे से कि क्या करना है। पता है ना!?
हाँ! मैने कहा
तो कर फिर
क्या!! मैने पूछा।
येsss...दही बड़े की दाल है। जरा मिक्सी में पीस दे इसे। मैं हँस दी और ठीक है। कहकर अपने काम मे लग गई।

दोपहर तक लगभग सारा खाना बन चुका था और मैं इस उबाऊ काम से बहुत थक चुकी थी। बस कुछ चीजें बची थी जो गर्म गर्म परोसी जानी थी, वे मां ने बनाने के लिए रख छोड़ी थी। पूरियाँ और पकौड़े सबसे आखरी में निकलने वाले थे। कुछ ही मिनट बैठने की फुर्सत माँ को मिली उसके बाद हम सब तैयार हो गए। कुछ ही देर में मेहमान आ चुके थे।

लड़की बेचारी नज़रे झुकाए सकुचाई सी सहज होने की बहुत कोशिश कर रही थी। उसे देखकर मुझे भी वह दिन याद आ गया जब प्रतीक मुझे देखने आए थे। मेरा हाल भी कुछ ऐसा ही था कि कब यहां से भाग जाऊं।

कुछ सोचकर मैने ढेर सारे मेहमानों के बीच से उसे बुला लिया। ये कहकर कि "आ जाओ रितिका हम अंदर चलते हैं।" सकुचा कर उसने अपने माँ की आँखों में देखा, उन्होंने आँखों ही आँखों में सहमति दी और वो उठकर मेरे पीछे आ गई।

अभी भी शायद घबराहट खत्म नही हुई थी उसकी मैं उसे लेकर अपने कमरे में आगई।
इतना परेशान मत हो ये कोई एग्जाम नही है तुम्हारी रितिका।
तुम्हें भी सब ठीक से देखना परखना चाहिए। वो मेरी ओर देखकर हल्के से मुस्कुरा दी।

चलो मैं ही अपनी फैमिली के बारे में बताने से लेकर शुरुआत करती हूँ।  मेरे पापा सरकारी इंजिनीयर हैं।
मेरा भाई गुड्डू, मेरा मतलब सर्वेश, मैंने हंस कर कहा। जिसे तुम परखने आई हो, वह सॉफ्टवेयर इंजीनियर है। मैं बैंक में पीओ हूँ और मेरे पति हार्डवेयर इंजीनियर। माँ की योग्यताएं हम सब से कहीं ज्यादा हैं। उन्होंने खुद को हमारी जिम्मेदारियों में झोंक कर हम सबको बनाया है। उसकी मुस्कान पहले से अब थोड़ी बड़ी हुई।

खैर! ये तो हुई पद, नाम, शिक्षा की बात! अब असली योग्यताओं  यानी नैतिक गुणों और व्यवहार की बात करती हूँ।
माँ का नेचर बहुत ही अच्छा है, प्यार बहुत करती हैं पर जताती नही। काम सब परफेक्ट चाहिए होता है उन्हें बस। मैंने तो बहुत डांट खाई है। स्कूल, कॉलेज में टॉप करने वाली ये लड़की उनकी क्लास की औसत स्टूडेंट भी कभी नहीं बन पाई। सुनकर उसे हंसी आ गई।

बाकी, तुम्हारी बड़ी तारीफ सुनी है उनके मुँह से। उसकी मोहक मुस्कान को बढ़ाने के लिए मैने बता ही दिया। तुम तो बिन परीक्षा ही मेरिट में आई हो। सुनकर वह मुझे आश्चर्य से देखने लगी। मैने कहना जारी रखा-
समय के साथ बदल रही कुछ चीजों में परिवर्तन अपनाना मुश्किल होता है माँ के लिए। पर कभी-कभी समझा देने पर समझ भी जाती हैं। रीति- रिवाज, मान्यताएं बहुत महत्वपूर्ण है उनके लिए। स्वसुख से भी ज्यादा। वो इन सब को बहुत तवज्जो देती है। और उन्हें निभाने के लिए खुद को कष्ट देने से भी पीछे नही रहती। बदलाव बहुत कम रास आते हैं पर कभी कभी तालमेल बिठा लेती हैं। और हाँ! बातें वे बहुत करती हैं। 

पापा उनके विपरीत बहुत ही कम बोलते हैं। काम से आने के बाद घूमने निकल जाते हैं। घर आकर खा पीकर दादी से बातचीत कर सो जाते है।  उनसे तालमेल बैठाने में तुम्हें कुछ खास परेशानी आने नही वाली। मेरे कहने पर वह मुस्कुराई।

रही बात मेरी, शादी के अगले दिन यहीं रुकवा कर मेरा पगफेरा कर दिया था और फिर सीधे ससुराल। पगफेरे के बाद छह महीने बाद  पहली बार मैं यहाँ आई हूँ। इसी से समझ जाओ ज्यादा तुम्हें परेशान करने बार बार आऊँगी नहीं। और अगर आई भी तो मैं भली, मेरी किताबें और मेरा यह कमरा।

पहली बार उसके चेहरे पर घबराहट और आनंद के अतिरिक्त कोई और भाव भी उभरा। मुझे देख वह बोली आपकी बातें सुनकर लगा ही कि इतनी सारी किताबें आप ही की हो सकती हैं।

हाँ!! क्योंकिं में भाषण अच्छा दे रही हूँ!? नही!?? कहकर मैं हँसी, तो उसने भी मेरी हँसी संग अपनी ताल मिला ली। फिर कुछ रुक कर बोली।
आप बहुत अंडरस्टैंडिंग लग रही हैं मुझे।

हम्म तो फिर इस अंडरस्टैंडिंग पर्सन के मुंह से मेरे गुड्डू यानी सर्वेश के बारे में भी सुन लो।  सीधा साधा है वो उसकी कोई खास एक्सपेक्टशन्स नही है लाइफ से। जो है जैसा है उसमें संतुष्ट है। बड़ी बड़ी महत्वाकांक्षाएं भी नही है बस परिवार के साथ सुख से रहना चाहता है। हँसमुख है और बेहद मजाकिया भी। पर घूमने फिरने का शौक बिलकुल नही उसे। दोस्तों के साथ टाइम पास वो करता नही गिनती के दोस्त हैं उसके। मुझसे बहुत लड़ता है बोलता भी सिर्फ घर के लोगों के सामने ही ज्यादा है बाकी शांत और समझदार है।

अब बताऊं बुरी आदतें, चिढ़ता बहुत जल्दी है किसी की दखलंदाजी उसे पसन्द नही आती न किसी का आर्डर देना।  प्यार से कहो तो सब कुछ कर देगा। जहाँ हमने आर्डर दे दिया फिर वो किसी का नही।  गुस्सा जल्दी आता है उसे छोटी छोटी बात पर और उतना ही जल्दी ठंडा भी हो जाता है। मन मे नही रखता दिनों महीनों तक।
ऐसे ही बहुत जल्दी आहत भी हो जाता है छोटी छोटी बात पर। इस मामले में मुझ पर गया है।
अब देखो, इन सबके कॉम्बिनेशन वाले इंसान के साथ तुम खुश रह पाओगी या नही।
तुम अगर सहज हो तो गुड्डू को मैं भेज देती हूँ तुम दोनों आपस मे बात करके एक दूसरे को थोड़ा समझ लो।  
दोनों के सोच विचार, किसी भी बात पर आपसी सहमति/ असहमति और आंतरिक चेतना का स्तर कितना मिलता है, ये समझ लो पहले। फैसला लेने में जल्दबाजी मत करना।

उसके हाँ कहने पर  मैंने गुड्डू को बुलवा लिया।

उन दोनों से बातचीत करने का कह कर मैं बाहर निकलने के पहले पलट कर बोली-  बड़ी होने के नाते एक बात कहना चाहती हूं। शादी के लिए हां तुम दोनों तभी करना जब तुम पहले खुद को अच्छे से जानते हो। खुद को अगर अच्छे से जान समझ लिया तो तुम कैसे जीना चाहते हो, ये तुम्हें समझ आ जाएगा और जब ये समझ आगया तो कैसा परिवार और कैसी सोच वाले लोग तुम्हारे लिए सही है ये समझ पाओगे।

खुद के प्रति जागृत होना खुद से प्रेम करना सबसे ज्यादा जरूरी है। जब हम खुद को पूरी तरह जान पाते हैं ना तो अपने अनुरूप लोगों का चयन कर उन्हें अपने जीवन में आसपास रखते हैं। और ऐसे लोग हमारे व्यक्तित्व विकास के लिए कहीं भी बाधा नहीं बनते।  उस स्थिति में अपना पूरा ध्यान हम उस परिवार पर दे पाते हैं क्योंकि अब हमें हमारी चिंता नहीं करनी होती है। हम खुश हैं  तो सबको खुश रख सकते हैं। हम ही परेशान हैं तो... समझते ही हो न!!
रितिका कुछ पल मुझे एकटक देखती रही मैंने एक मुस्कुराहट  दी और कमरे  से बाहर निकल गई।

इन दोनों को रिश्तों के मूल्य समझाती प्रेरणा क्या प्रतीक से अपना रिश्ता सुधार पाएगी? रक्षिता के बारे में पता कर पाने की उसकी मंशा क्या रूप लेगी? क्या वह इसमें सफल होगी? रितिका और गुड्डू यानी सर्वेश क्या फैसला लेंगे? जानने के लिए पढ़ते रहें मेरा क्या कसूर

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मेरा क्या कसूर एपिसोड 7



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