मेरा क्या कसूर episode 7


मेरा क्या कसूर एपिसोड 1

मेरा क्या कसूर एपिसोड 2

मेरा क्या कसूर एपिसोड 3

मेरा क्या कसूर एपिसोड 4

मेरा क्या कसूर एपिसोड 5

मेरा क्या कसूर एपिसोड 6

पिछले एपिसोड में आपने पढ़ा प्रेरणा, प्रतीक से बात करने की कोशिश करती है लेकिन वह फोन रिसीव नहीं करता। बाहर उसे रक्षिता की माँ भी दिखाई देती है जिन्हें बुआ जी के डर और अपनी माँ की कड़ी हिदायत के मारे वह कुछ बोल नहीं पाती। और रसोई में माँ की मदद करने पहुँच जाती हैं। गुड्डू (सर्वेश) से मिलने वाले मेहमान आ चुके हैं। प्रेरणा, सर्वेश और रितिका को कुछ देर बात करने के लिए अकेला छोड़ देती हैं और उन्हें जीवन और रिश्तो के मूल्य समझाती है। अब आगे


मेरा क्या कसूर - एपिसोड 7


उन्हें बात करने के लिए छोड़ मैं हॉल में आ गई। देखा तो बाहर की महफिल अभी भी वैसे ही जमी हुई थी। मां ने मुझे आँखों के इशारे से कहा तुम यहां बैठो मैं किचन में हूँ।
मैं भी वैसे ही आंखों के इशारे में  ठीक है कहकर उन सब के साथ बाहर बैठ गई।
बातों का सिलसिला चल रहा था। सब एक दूसरे को अपने बारे में बता रहे थे। पापा और अंकल एक दूसरे को ऑफिस के किस्से सुना रहे थे।
तभी रितिका की मां ने मेरी ओर प्रश्नवाचक नजरों से देख कर पूछा "रितिका!?"
जी, मैं अभी बुला देती हूँ। अंदर ही है, कहकर मैं उठी।
कमरे की और जाते हुए रसोई घर के सामने से निकलेते हुए  अंदर एक नज़र डाली तो  रितिका मां के साथ पूरी और पकौड़े निकालने में व्यस्त दिखी।
गुड्डू भी कमरे से निकलकर बाहर आ रहा था।
कुछ ही देर में गुड्डू भी वहां आया,  मैंने चिढ़ाया, देख माँ तो तैयार ही बैठी हैं। तेरा क्या विचार है? और मुस्कुरा दी। 
मैंने उसकी आंखों में देखा एक चमक और संतुष्टि सी दिखाई दी। खुश लग रहा था। बिना मेरी  बात का जवाब दिए मुस्कुराता हुआ, हॉल में जा वह सबके बीच फिर से बैठ गया। मैंने रितिका को भी बाहर भेज दिया ये कहकर की माँ बुला रही है।
माँ! आपने तो अभी से काम में लगा लिया उसे।
मैं क्यों लगाने लगी खूब मना किया पर मानी नही वही। वे चिंतित हो सफाई देने लगी।
अरे मज़ाक कर रही हूँ मैं आप भी ना। माँ सुनकर मुस्कुरा दी।

दोनों परिवारों को एक दूसरे का व्यवहार काफी पसंद आया। खाने के बाद भी कुछ देर बैठ कर सब ने खूब हंसी ठिठोली की उसके बाद वे अपने घर चले गए।
जाते हुए सबने दादी के पैर छुए, ये बात माँ पापा को बहुत अच्छी लगी।
उनके जाते ही मां का सारा सब्र टूट गया।
मुझे तो बहुत अच्छे लगे, पारिवारिक लोग हैं।  लड़की भी सच मे बहुत सुशील है।
अरे! बहु लाने की इतनी जल्दबाजी? मैंने हँसकर कहा।

अरे, हाँ!! कर दो अब मेरे गुड्डू का भी ब्याह। मैं भी पोता बहु का मुँह देख लूँ। दादी भी माँ का साथ दे बोली।

अरे माँ आपको तो पड़पोते का भी ब्याह देखना है अभी।
माँ ने कहा।
इतने दिन नही रुकूँगी जल्दी करो अब।
आपको कैसा लगा परिवार माँ पापा ने दादी से पूछा। हाँ अच्छा लगा बेटा।
कुछ देर की बातचीत के बाद माँ को आराम करने का कह कर मैं किचन समेटने में लग गई। माँ बहुत आश्चर्य में थी मुझे देखकर। शादी के पहले जो लड़की रसोई में कदम रखने के नाम से नाक भौं सिकोड़ लेती हो, उसका यूँ रसोई में रमने का प्रयास माँ को अच्छा लगा। वे मेरी ओर से अब जरा निश्चिन्त सी लगीं। 
रात लगभग आठ बजे तक प्रतीक का वापस ना कोई फोन आया था ना मैसेज। मैंने कई बार ट्राई किया, फोन रिसीव नहीं हुआ। मैंने मैसेज छोड़ा उनका कोई जवाब नहीं आया।
कुछ देर बाद मैं अपने में गुम अपने कमरे में बैठी सोच रही थी, जिस शख्स के लिए मैं इतना सोच, अपने आप को हर तरह से बदलती आ रही हूँ, आगे भी बदलने का फैसला कर चुकी हूँ, सिर्फ उसकी खुशी के लिए। उसे ये सब क्यों नहीं देखना है? उसे तो सिर्फ मेरी छोटी छोटी गलतियां देखनी है और शिकायतें करनी हैं।
कुछ ही देर में माँ आकर खड़ी हो चुकी थी।
मुझसे फिर पूछ बैठी।
क्या हुआ है परेशान क्यों है?
इस बार मैंने मां को प्रतीक को फोन ना लगा पाने वाला पूरा  किस्सा सुना दिया।
हद है प्रेरणा! जिम्मेदारी नाम की कोई चीज़ है भी या नही? ये
छोटी-छोटी चीजें तुझे ध्यान रखनी चाहिए।
सब कुछ, हर बात में हमें क्यों समझाते हो माँ! कोई रिस्पांसिबिलिटी सामने वाले की नहीं होती क्या…?
हर बात में राई का पहाड़ बनाए ये जरूरी है प्रतीक के लिए? सब कुछ  लड़कियों से है और लड़कियों के लिए ही है। सारी अपेक्षाएं लड़कियों से, सबको खुश रखने की ज़िम्मेदारी उन पर , सबकी उम्मीदों पर वही खरी उतरे, हर कर्तव्य पूरा करती रहे। लेकिन लड़कों को क्यों आप लोग कुछ नहीं कहते कि वे भी बराबर का साथ दे इन सबमे!? रिश्ता निभाने की उन लोगों को कोई रिस्पांसिबिलिटी नहीं होती मां!
माँ बहुत परेशान सी मुझे एकटक देख रही थी। मेरा ऐसा रूप तो उन्होंने आज तक नहीं देखा था। हमेशा शांत, धीर गंभीर कभी मैने किसी बात के लिए उन्हें पलट कर जवाब नहीं दिया।
कभी किसी बात पर ऐसे तुरंत प्रतिक्रिया देते हुए उन्होंने मुझे कभी नहीं देखा था।
जीवन में उन्होंने मुझे हमेशा बहुत सोच समझकर कुछ भी निर्णय लेते और बोलते देखा था।
ये आज दूसरी बार ही था जब मैं किसी बात पर ऐसे तुरन्त आक्रोश जता रही थी। पहली बार मेरी ऐसी स्थिति माँ ने तब देखी थी, जब रक्षिता के घर से चले जाने के बाद हमें उसका पता लगा था। तब इसी तरह गुस्सा हुई और बड़बड़ाई थी।
माँ के हाव भाव देखकर मैंने थोड़ा शांत होकर कहा-

सॉरी मां! पता नहीं क्या! शायद सब कुछ मिक्स हो गया। रात भर से प्रतीके का फोन बंद था और मुझे काफी शर्मिंदगी हो रही थी कि मैंने याद क्यों नहीं रखा?
सुबह रखें ताकि सुबह मुझे सुलक्षणा मामी जी बगीचे में दिखी। बात करने की बहुत इच्छा थी लेकिन फिर मैं कुछ कहती। रक्षिता के बारे में उसके पहले उसकी बुआ की बातें याद आ गई। फिर  पड़ोस वाली काकी जी ने भी सारी हिदायत लड़कियों के लिए रख छोड़ी ये सब दिमाग मे घूम ही रहा था और अब आपने भी मुझे ही समझाना शुरू कर दिया। इसलिए.. मैंने उनके हाथ पर हाथ रख कहा-
अब माँ इतनी बड़ी बात भी नहीं है ये। गलती हो गई। महीनों बाद आप सबके पास आई हूं। पहली बार इतने समय सबसे दूर रही। तो आते ही बस यहीं रम गई।
और फिर भी मैंने याद आते ही फ़ोन किया न!? आज भी दिनभर से लगा रही हूँ। अब तो उठा लेना चाहिए। थोड़ा समझदार तो उन्हें भी होना चाहिए न।

ऐसा नही होता। खैर चल कोई बात नहीं तेरी सोचने की आदतें अभी तक नहीं गई।  ये छोटी-छोटी चीजें तुझे ध्यान रखनी चाहिए वाकई में। कुछ नियम बने हैं लड़कियों के लिए कुछ लड़कों के लिए।  हाँ मानती हूँ कि हम पर इनका बोझ जरा ज्यादा ही लादा गया है पर अब जो है सो है।

माँ को किसी बदलाव की क्रांति पर भाषण देने के लिए ये समय बिल्कुल भी सही नही था। सो मनोभावों को अंदर ही दफन कर फिलहाल चुप रहना ही मैंने उचित समझा।

उनका मूड सही होगा तो फ़ोन कर लेंगे हो सकता है बिजी होंगे ज्यादा। मुझे अब भी परेशान देखकर ये कहते हुए माँ ने शाब्दिक सांत्वना दी।
मैं भी तो थी अपने घर मे बिज़ी! मन में सोचा मैने।

चल खाना खा ले। अभी तो खाया था माँ भूख नहीं है।
दादी और पापा के साथ बैठ कर थोड़ा ही ले ले कुछ। चल जल्दी आ। कह कर माँ बाहर निकल गई।

बस कल और परसों का दिन और है मेरे पास। उसके बाद वापस जाना होगा। उस अजनबी माहौल में वापस। पता नहीं वहां ज्योति नहीं होती तो मैं जी कैसे पाती? बहुत घुटन घुटन सा लगता है वहाँ।
सबने खाना खाया काम निपटाकर सभी जल्दी सो गए। आज काफी थक भी गए थे।

अगले दिन मां और मैं बाजार चली गई। चली क्या गई ले जाई गई। मां ही जबरदस्ती ले गई थी कुछ चीजें दिलाने।
माँ मेरे लिए साड़ियां पसन्द करने में व्यस्त थी जिसमें मेरी कोई दिलचस्पी नहीं थी।
वे बार-बार मुझे एक एक साड़ी दिखा रही थी और पूछ रही थी देख ये अच्छी है ना! या ये…  या ये… ये वाली देख… इसका रंग अच्छा है!  वैसे रंग तो तुझ पर सभी खिलते हैं। उनके हर सवाल के जवाब में मैं यही कहे जा रही थी, आपको जो पसंद है वह ले लो पता तो हैं मैं कुछ भी पहन ही लूँगी। आखिरकार माँ ने दो साड़ियां पसंद कर ली।

दुकान से बाहर निकलते हुए बाहर दीप्ति मिल गई। मेरे कॉलेज की सहपाठी।

मुझे देखते ही बहुत खुश हो गई।
हाssssssय प्रेरणाssss! कैसी हो ?
बिल्कुल ठीक तुम बताओ! बहुत दिनों के बाद दर्शन दिए?
बस यार थोड़ी व्यस्तता थी…।
अरे यार तुम कब व्यस्त नहीं होती कॉलेज में भी यही हाल था! उसने कहा तो मैं हंस दी।
क्या कर रही हो आजकल तुम? मैने पूछा।
बस एमपीईबी में जॉब लग गई है।
वाओ! कांग्रेचुलशन्स मिठाई फिर!? मैने कहा।
चल न घर! मैं खिलाती हूँ।
तू ही चल न आज! मैंने कहा।
अरे बेटा! कब तक यहीं खड़े होकर बात करोगे तुम लोग!?
इतने दिन बाद मिले हो, चलो दीप्ति बेटा! घर पर बैठ कर बात करना।
माँ का फरमान सुनने के बाद तो उसका रुकना और टालना दोनों नामुमकिन था। उसने चलने के लिए हामी भरी और चलते हुए रास्ते से अपनी माँ को फ़ोन कर बताया।

माँ, प्रेरणा आई हुई है। उसके घर जा रही हूँ थोड़ी देर हो जाएगी।
घर आकर माँ चाय पानी के बंदोबस्त में व्यस्त हो गईं।

और बताओ कैसी चल रही है मैरिड लाइफ…? उसने प्रश्न किया।
सब बढ़िया है। मैने जवाब में कहा।
बढिया तो होगी ही जीजू बहुत हैण्डसम हैं। उसकी ये बात मुझ मूढ़मति के समझ से परे थी। पर कुछ तो कहना था।

ह्म्म्म!! तेरा क्या इरादा है?
बस माँ पापा ढूंढ रहे हैं मिल जाये तो मैं रेडी हूँ जाने को कहकर वो हँसी।

इतना भी आसान नहीं होता अपनो से दूर रहना। खैर अच्छा है जल्द ही मिले तुम्हें समझदार और नेकदिल जीवन साथी। मैंने कहा।
"हैंडसम भी होना चाहिए।" उसकी सुई फिर वहीं अटक गई।
मैं मुस्कुरा दी। उसकी बात पर नहीं!! अपनी कम बुद्धि पर कि मुझे ये कभी समझ क्यों नही आता, शादी में रूप रंग ही सबसे पहले देखा जाता है।

और बताओ दीप्ति हमारे स्कूल कॉलेज का बाकी कोई कांटेक्ट में है तुम्हारे?
है ना बहुत लोग हैं। सबसे ही बात होती है मेरी तो लगभग। इवन जूनियर्स से भी।

अच्छा!!
और रक्षिता!? मैंने डरते हुए पूछा कहीं माँ न सुन ले।

रक्षिता? कौन? वो जो तुम्हारे घर के पास वाले घर मे रहती थी!! वह याद करते हुए बोली।
हां वही।

नही यार!! उसका तो उस दिन कॉलेज से जाने के बाद कोई पता नही। मैने सुना था वो परीक्षा देने तो आई थी फाइनल पेपर्स के टाइम। लेकिन किसी से बात नही की। बस अपने पेपर्स किये और सीधे वापस निकल गई।

मेरे उदास से चेहरे को देख वह बोली क्या हुआ कुछ परेशान हो!?
नही तो! बस वही उसी के लिए सोच रही थी।

कुछ प्रॉब्लम में थी क्या वह? उसने चिंता से ज्यादा उत्सुकता जताते हुए पूछा।
मैं बताना चाहती थी मगर उसी वक़्त माँ चाय नाश्ता लेकर आ गई। ट्रे रखकर उन्होंने मुझे फ़ोन वाली हिदायत आंखों ही आंखों में फिर दे दी। उनके आंख दिखाकर ना में गर्दन घुमाते ही  बुआजी का रौद्र अवतार भी फिर मेरे सामने आ गया। मैंने सच को टालने में ही अपनी भलाई समझी।

नही! पता नही। शायद वो उसके गांव गई है, या नाना नानी के यहाँ। ऐसा कुछ बता रहे थे उसके घर के लोग काफी टाइम से उससे मुलाकात नही हुई।

तुम्हारी शादी में भी तो वो नही थी। तुम्हें तो कितना मानती थी काफी घनिष्टता थी न तुममे! कॉलेज हो या घर, दीदी! दीदी!  की माला जपते तो तुम्हारे आगे पीछे घूमती थी वो। एक एक सवाल करते हुए उसकी नज़रें लगातार मेरे चेहरे के भावों को पढ़ रही थी। जैसे सबकुछ जान लेगी।

हाँ!  इसलिए कभी-कभी याद आ जाती है उसकी। मैंने संक्षिप्त से उत्तर दे बात खत्म की।
तुम लो न कुछ। नाश्ते की प्लेट आगे सरकाते हुए मैंने कहा।

नही! बस कुछ खा नहीं पाऊँगी। चाय पीकर निकलती हूँ। समय बहुत हो गया ज्यादा देर हुई तो घर पर बातें सुननी पड़ेंगी, कहकर चाय खत्म कर वह चली गई। और मेरे मन मे फिर छोड़ गई रक्षिता को लेकर कुछ अनुत्तरित से प्रश्न।

कुछ ही देर बाद माँ के फ़ोन की घण्टी बजी।

जी बहनजी! हमें भी रितिका का स्वभाव बहुत अच्छा लगा। जी… जी... हाँ...जी देख लेते हैं...। आप कुंडली भेज दीजिये रितिका की। गुण आपने मिलवा ही लिए हैं तो जल्द ही सगाई की तारीख निकलवा लेते हैं।

फ़ोन बन्द होने के बाद माँ के चेहरे की खुशी आसानी से पढ़ी जा सकती थी और खुशी के पीछे का कारण भी सभी को स्पष्ट हो गया था।
पूरे घर मे एक खुशी की लहर सी छा गई थी।

उसी दिन शाम को मैंने रितिका से मिलने के लिए माँ को मना  लिया ये कहकर कि फिर मैं चली जाऊँगी वापस।
सगाई में ही आ पाऊँगी। तो एक बार तो अपनी होने वाली भाभी से मिल लूँ।

मेरा उद्देश्य बस गुड्डू और रितिका को एक बार और मिलवाना था। मैं नही चाहती थी सब कुछ इतना जल्दी जल्दी तय हो जाए।

रितिका के परिवार ने बेहद आत्मीयता से स्वागत किया हमारा।मैं और गुड्डू उसके साथ उसके घर के लॉन में बैठे थे।

अभी तुम्हारी सहेली हूँ। भाभी वाला औपचारिक रिश्ता सगाई के बाद।
तुम दोनों के शुभचिंतक होने के नाते अब ये बात कह रही हूँ परिवार बहुत अच्छे हैं दोनों ही के नो डाउट। लेकिन तुम दोनों को ना कुछ समय एक दूसरे को समझने में देना चाहिए। चाहे फ़ोन पर बात करो। पर विचार जानने बहुत जरूरी हैं।
आपसी चर्चा से तुम्हे ये भी पता हो कि शादी सच मे करना चाहते हो? हाँ तो किसलिए?  सिर्फ परम्परा है इसलिए निभानी है या सच मे तुम तैयार हो अपने जीवन को किसी के साथ बराबर बांटने के लिए? अपने साथी से तुम्हारी उम्मीदें क्या हैं? इन सवालों के स्पष्ट और सटीक जवाब एक दूसरे को देकर ही तैयार होना। दोनों मुस्कुरा दिए।

बहुत लकी हूँ मैं जो आप जैसी समझदार सहेली मुझे मिली। रितिक बोली।
मैंने भी एक बड़ी सी मुस्कान से उसकी बात का शुक्रिया अदा कर कहा। मैं भी लकी हूँ मुझे भी एक प्यारी और समझदार सहेली मिली है। कुछ देर उन दोनो ने बातें की। उनसे विदा ले हम घर आ गए।

वापस आकर देखा तो पापा काफी परेशान से दिखे।
मैंने माँ से पूछा तो उन्होंने भी "पता नही पूछूँगी" ऐसा रहस्यमयी जवाब बहुत चिंतित स्वर में दिया।

क्या मोड़ लेगी इन सबकी जिंदगियाँ?  क्या सर्वेश और रितिका एक दूसरे के जीवनसाथी बनेंगे ? रक्षिता के गायब होने के बारे में रहस्य कब खुलेंगे? जानने के लिए पढ़ते रहें। MKK  (मेरा क्या कसूर)

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मेरा क्या कसूर एपिसोड 8



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