मेरा क्या कसूर episode 8

 

मेरा क्या कसूर एपिसोड 1

मेरा क्या कसूर एपिसोड 2

मेरा क्या कसूर एपिसोड 3

मेरा क्या कसूर एपिसोड 4

मेरा क्या कसूर एपिसोड 5

मेरा क्या कसूर एपिसोड 6

मेरा क्या कसूर एपिसोड 7


पिछले एपिसोड में आपने पढ़ा सभी को रितिका का परिवार बेहद पसंद आता है और रितिका भी! प्रेरणा, मां को प्रतीक को फोन ना लगा पाने वाली घटना के बारे में सब कुछ बता देती हैं। साड़ी की दुकान से बाहर निकलते हुए प्रेरणा को दीप्ति मिलती है, जिससे रक्षिता के बारे में पूछने पर उसे बस इतना ही पता चलता है कि आखिरी बार उसने उसे तब देखा जब वह कॉलेज में पेपर देने आई थी। रितिका के परिवार वालों को भी सर्वेश बहुत पसंद आता है। रिश्ता लगभग तय ही है। प्रेरणा चाहती है कि सर्वेश और रितिका अधिक से अधिक समय एक दूसरे के विचार जानने में बिताए इसलिए वह सर्वेश को लेकर रितिका के घर से जाती है। वहां से वापस लौटने पर मां पापा उसे बहुत चिंता में दिखाई देते हैं। अब आगे-

मेरा क्या कसूर - एपिसोड 8


आज मेरा आखरी दिन है यहाँ! आज भी रसोई का लगभग सारा काम मैंने सम्भालने की कोशिश की। जी जान से मैं जुटी थी उसे अपनाने और सीखने में जिसमे मेरी लेशमात्र भी रुचि नहीं थी। माँ के चेहरे पर एक तेज सा आ जाता है जब वे अपनी मूढ़मति बेटी को रसोई में मन रमाती देखती हैं। मगर कल शाम से न जाने कौन सी चिंता उन्हें खाए जा रही है, मेरी समझ से परे है। रसोई में मुझे देखकर उनके चेहरे पर गर्व का कोई अहसास आज जागता नहीं दिखा।

पापा भी सुबह से वैसे ही परेशान लग रहे थे।
उन्हें ऐसे परेशान देखना मेरे ह्रदय की तीव्र वेदना बन जाया करती थी। भले बातें न होती थीं उनसे! लेकिन उन्हें परेशानी में देखना जैसे किसी तीर की तरह चुभता था मुझे।
पापा से तो संकोचवश मैं कुछ न पूछ पाई और माँ से दो बार पूछने पर उन्होंने कल शाम की तरह ही टाल दिया। थोड़ा अजीब लगा।
बस आज का दिन मेरा आखरी है। सोच रही हूँ रक्षिता के विषय मे पता करूँ।
कॉलेज की कुछ सहेलियों से कॉलेज में ही मिलने का प्लान बनाया और मैं निकल गई घर से। सबके नंबर थे भी नहीं दीप्ति से जुटाए।
माँ सहित सभी को बड़ा आश्वर्य हुआ था। जब मैंने सबको फोन किया।
सरिता ने तो फ़ोन पर ही सीधे कह भी दिया "बिना किसी काम की बात तुमनेssss मतलब  तुमनेsss मिलने बुलाया हैsss!? मैं सपना तो नहीं देख रही!?"
मतलब फ्रेंड्स, चिल, हैंग आउट तुझ जैसे किताबी कीड़े की लिस्ट में कहां  से आ गया भाई!!!!
जैसे तैसे सबको बहाना दे बुलाया। अधिकतर आई भी। मगर किसी से रक्षिता के बारे में कुछ पता नहीं चल पाया। मैं खाली हाथ निराश सी घर लौट आई।

रितिका और गुड्डू के फ़ोन नम्बरों का आदान प्रदान हो चुका था।
वापसी के लिए माँ ने एक एक्स्ट्रा बैग तैयार कर दिया था। जिसे देख देख मैं घबरा रही थी कि किस तरह इन्हें लेकर जा पाऊँगी।
प्रतीक ने इन चार दिनों में न वापस फ़ोन किया न किसी मैसेज का रिप्लाई। इसलिए उम्मीद लगाई ही न थी कि वे स्टेशन आएँगे।

कमरे में सोने के लिए तो गई मगर आँखों आँखों में ही चाँद सूरज में बदल गया, ये सोचते सोचते कि जाने का समय वापस आ गया और वापस जाकर प्रतीक का क्या रिएक्शन होगा!?, ये चिंता भी खाए जा रही थी।

वापसी में माँ की और मेरी आँखें जैसे आँसुओं की होड़ में लगी थी। गुड्डू की गाड़ी के पिछले सीट पर बैठते हुए  सब कुछ एक पल में फिर से पराया लगने लगा। जो बाग-बगीचे, पक्षियों की चहचहाट आने पर ताज़गी और खुशी का एहसास करा रही थीं,  वही आज नीरस लग रही थी। सब कुछ उदासीन सा लग रहा था। एक हूक सी उठ रही थी दिल में।
मन कह रहा था प्रेरणा! मत जा! ये सब छोड़ कर वापस। लेकिन मस्तिष्क ने उसे फटकार कर चुप बैठा दिया।
दौड़ती सड़क, पीछे छूटती जा रही थी और उसके साथ पुरानी यादें भी। आँखों के सूखने और भरने का सिलसिला बड़ी मुश्किल से थमा। रास्ते भर गुड्डू खामोश था और मैं भी।

स्टेशन पहुँचते ही वह बोला- "क्या जीजी तू इमोशनल गुड़िया बन रही है। इतना रोएगी तो मैं माँ से अगले हफ्ते ही शादी की तारीख निकलवा लेता हूँ सिर्फ तेरे लिए! जल्दी आजाना वापस बस!? खुश!?  उसका उद्देश्य पूरा हुआ, उसके इस वाक्य ने मेरे चेहरे पर मुस्कान की हल्की सी रेखा खींच ही दी थी।

"बस ऐसे ही हँसती रहना। पहुँच कर फ़ोन करना।" उसने कहा
"हाँ! तू बस माँ पापा का ध्यान रखना।" "अपना भी और अब  रितिका का भी।" मैं बोली।
हाँ! कह कर वह हौले से मुस्कुरा दिया।

ट्रेन में इस बार मेरा ध्यान, न छूटती पगडंडियों, फूल-पौधों, पहाड़ों-पुलों पर था,  न रक्षिता पर! अब दिमाग़ में बस माँ-पापा का परेशान चेहरा घूम रहा था। बीच बीच में घर की सुनहरी यादें और प्रतीक के बारे में मन मे उधेड़बुन भी दस्तक दे जाती। 
काश! मैंने जो बातें रितिका और गुड्डू को कही वो मुझे भी अमल करने दी जाती! काश! मैं कुछ समय ले लेती, प्रतीक को समझने का! लेकिन माँ पापा नाराज़ हो जाते। उन्हें ही तो नाराज़ नहीं करना चाहती थी।  और फिर हमारे यहाँ लड़कों को ना कहने का हक़ होता है बस। लड़कियों की पसन्द ना पसन्द को इतनी तवज्जो आज भी नही दी जाती।
उनसे विचार न मिलने पर भी मुझे ना तो कहने न दिया जाता!

पर शायद समय मिलता तो  मैं उन्हें समझ कर खुद को उस अनुसार ढाल तो लेती। खुद से सवाल-जवाब की एक लम्बी श्रंखला में, मेरा गंतव्य स्थान आ गया।
स्टेशन से प्रतीक को कई बार फ़ोन करने पर भी उन्होंने फ़ोन नही उठाया। कुली के सहारे दोनों बैग जैसे तैसे रिक्शा में डलवा मैं घर की और निकल गई।  मन बहुत उदास था। घर पहुँची तो घर लॉक था। इतनी सुबह प्रतीक कहाँ गए होंगे और अब बाहर कब तक खड़ी रहूँ की उधेड़बुन के साथ मैं अपनी मंज़िल के फ्लैट के बाहर खड़ी हो उन्हें फ़ोन मिलने की नाकाम कोशिश करने लगी।
आशानुरुप जब फ़ोन रिसीव न हुआ तो मैंने ज्योति को फ़ोन किया।
हेलो ज्योति!!
अरे!! दीदी!? मेरी आवाज सुनकर जैसे वह एक पल को चौंक गई।
कहाँ है तू घर पर?
हाँ।
आई नहीं खाना बनाने?
नही, दीदी! साहब ने सुबह आने को ना ही कर दिया था आप गईं तबसे।  तो बस शाम को आ रही हूँ।
अच्छा!
सुन तेरे पास चाभी है ना?
हाँ! है ना दीदी!
प्लीज़ आजाएगी क्या मैं बाहर खड़ी हूँ।
हां अभी आई दीदी कहकर 15 मिनिट में वह मेरे पास पहुँच गई। थोड़े आश्चर्य से मुझे देख रही थी जैसे मेरा आना उसे अप्रत्याशित लगा हो।
ऐसे क्या देख रही है?
नहीं!  कुछ नही आप कह देती न साहब को तो वे देर से जाते।
हाँ सोचा कहना क्या काल मेरी आखरी छुट्टी थी पता तो था ही उन्हें। सोचा क्यों परेशान क्यों करूँ, खुद ही चली जाती हूँ।

चलिए, आप फ्रेश हो जाइए मैं चाय नाश्ता बना देती हूँ।
हाँ! कहकर में अंदर आ गई। पहले घर फ़ोन कर सकुशल पहुँच जाने का समाचार देने माँ को फ़ोन किया।

हाँ माँ चरणस्पर्श!
खुश रह बेटा।
बोल पहुंच गई!?
हाँ!
जवाई सा आये थे लेने उन्होंने पूछा!
मैंने जाने क्यों हाँ कह दिया।
उनसे बात करते हुए एक पल को ग्लानि भी हुई कि माँ को फोन करना मुझे कैसे याद रह न!? लेकिन प्रतीक का कहा मैं क्यों याद नहीं रख पाई?
ठीक है मैं रखती हूं माँ! फिर बात करूँगी। ऑफिस  के लिए निकलना भी है।  कहकर, मैं फ्रेश होने चली गई।

सफर चाहे चार घण्टे का हो, कितना ही लक्ज़री क्यों न हो मगर शरीर थक तो जाता है। और हाथ पैरों की अकड़न के मारे थकान और बढ़ ही जाती है। कुछ पल बैठकर सुस्ता लेने के बाद चाय नाश्ता किया और ज्योति का सामान उसे दिया। जो माँ ने उसके लिए भेजा था। चूड़ियाँ बिंदी एक सूट और मिठाई का डब्बा देख वह बोली माँ ने इतना क्यों खर्चा किया दीदी इसकी जरूरत नहीं थी। माँ के प्यार की जरूरत तो हमेशा  सबको ही होती है ज्योति। आजीवन!
सुनकर उसने मूस्कुरा कर सब रख लिया और अंक में भर लिया जैसे माँ को ही गले लगा रही हो।
आफिस का समय हो गया था मैं उसे शाम को बात करते हैं कहकर जल्दी से आफिस को निकल गई।
दिनभर काम मे बीत गया समय का कुछ पता नहीं चला। शाम को मेरे घर पहुँचने के 10 मिनिट बाद ही प्रतीक भी आ गए।
मैं अंदर चेंज कर रही थी। और बैग सुबह जहाँ रखे थे वहीं हॉल में पड़े थे। सोचा था फ्रेश होकर चाय पीते हुए अनपैक कर लूँगी।
प्रतीक की नज़र उन पर पड़ते ही उनके कंठ ने जोरदार प्रतिक्रिया दी। जिससे हॉल, किचन, बैडरूम की दीवारों के साथ मैं और ज्योति भी दहल गए!
ज्योतिssssss! ज्योतिsssss!
किसके बैग हैं ये? वे जोर से चिल्लाए।
वो दीदी!
आगे वो कहती उसके पहले ज़ोरदार आवाज़ आई। कितनी दफा कहा है, चीज़े इधर- उधर फैली हुई नहीं चाहिए मुझे।
मैं आफिस से आऊँ, तब घर बिलकुल साफ होने चाहिए। समझने में परेशानी है!?

उसने जवाब देने की बजाय बैग जल्दी से कमरे में ले जाकर रखना सही समझा।
मगर उसके बैग्स तक पहुँचने के पहले मैं पहुँच गई और उन्हें अंदर ले आई। 20 मिनिट तक प्रतीक अंदर न आए चकन्गे करने तो मैं ही बाहर आगई। मेरे बाहर आते ही उन्होंने बैडरूम का रुख कर लिया। पूरे घर में बस बेडरूम में चल रही टीवी की हल्की  आवाज सुनाई दे रही थी बाकी
तेज़ तूफ़ान के बाद जैसी शांति होती है ना वैसा ही कुछ माहौल अभी हमारे घर का था जैसे उस जैसे वह तूफान सब कुछ अस्त-व्यस्त करने के बाद चुपचाप शांति से आराम से मौज में रहता है वैसे ही प्रतीक ने कि इस क्रोधी शब्द तूफान  दिल दिमाग में विचारों और भावों की भावों को अस्त-व्यस्त कर दिया था और उनके दिमाग में उथल-पुथल होने का तो कोई सवाल ही नहीं था क्योंकि वह सोच विचार जैसी चीजों से दूर रहते थे
मन आहत हुआ बहुत ही ज्यादा। समझती हूँ नाराज़ हैं प्रतीक मगर ऐसे व्यवहार की अपेक्षा नहीं थी उनसे। खैर हमारी अपेक्षाओं के अनुरूप ही सब कहाँ होता है? ज्योति से उन्होंने कह दिया था कि खाना मेरे रूम में ले आना। ये मन्ज़र देखने के बाद मेरा तो खाने का मन ही नही हुआ। ज्योति ने भी नहीं खाया। उसे मैने खाना पैक करके ले जाने को कहा। जाते जाते वो मुझे कह गई-
"आपको अभी कुछ दिन नही आना था दीदी।"
मैं उसे आश्चर्य से देखती रह गई!  क्या बोल गई यह?

मैं अब अकेली तन्हा यहाँ इस हॉल में छटपटा रही थी। समझ ही नही आ रहा था करूँ क्या? किताबों और संगीत को मेरे अपने प्रण ने मुझसे दूर किया हुआ था। वरना विचलित परिस्थितियों से मुझे निकलने और सुकून दिलकने को ये दोनों साथी मेरे लिए काफी थे।

और प्रतीक को मेरी एक छोटी सी गलती ने इतना दूर कर दिया था। खैर नजदीकियाँ तो पहले भी नहीं थी पर कम से कम कुछ बात होती थी, इतनी दूरी नही लगती थी।

आजकल सच इस घर मे दम सा घुटता है।
क्या करूँ की उधेड़बुन ने मन से कहा कि गलती हुई है तो माफी मांग लेने में कोई बुराई नहीं है।

लेकिन मैने मैसेज तो किया था उन्हें। मैसेज में माफी भी मांगी थी। फ़ोन पर भी मांगना चाही थी, उन्होंने उठाया ही नही।

कोई बात नही अब तो घर आगई न! एक बार और सही।
हो सकता है उसका असर न हुआ हो!?
प्रत्यक्ष माफी तो असर दिखाएगी ही। वैसे भी माँ कहती है पति पत्नी वाले रिश्ते में आत्मसम्मान को ताक पर रख देना चाहिए।

मुझे तो उनकी ये बात कभी सही नहीं लगती। भला रिश्ते आपके मान सम्मान स्वाभिमान को बढ़ाने के लिए साथ देते हैं या उन्हें मारने के लिए तैयार बैठे रहते हैं? अगर दूसरा विकल्प सही है तो फिर वो रिश्ते ही क्या।

खैर! मेरी परिभाषाओं और विचारों के नज़दीक तो शायद ही दुनिया का कोई व्यक्ति बैठ पाए। समझौता हर बार की तरह मुझे ही करना रहा। सोच कर मैं उठ गई।

दिल जैसे बैठा जा रहा था, हिम्मत नही हो रही थी पर में धीरे धीरे कदम बढ़ा रही थी बैडरूम की तरफ। घबराते हुए दवाज़ा नॉक किया पर कोई जवाब नहीं आया।
दवाज़ा था तो खुला ही जब तीन चार बार नॉक करने के बाद कोई जवाब नहीं मिला तो मैंने उसे हल्का सा धक्का दिया।

उनकी नज़रें टीवी पर ही चिपकी रहीं।
प्रतीक!!
हिम्मत करके मैने कहा तो उनकी नज़रें मुझे ऐसे घूरने लगी जैसे खा जाएँगी।
मेरी नज़रें डर के मारे झुक गई।
"आई एम सॉरी! वो मैं… कई महीनों बाद घर गई तो… थोड़ी... …… मतलब …भूल गई थी। आइंदा ऐसी गलती नही होगी। याद रखूंगी मैं। पहुँच कर आपको इन्फॉर्म करूँ।"
नज़रें झुकाए हुए किसी अक्षम्य अपराध किये अपराधी की भांति मैने हकलाते हुए अपनी बात रखी।

कोई जवाब नहीं मिला।
"मैं वाकई शर्मिंदा हूँ आगे से नहीं होगा।" मैंने एक और कोशिश की।

इस बार नज़रें फिर उठी मेरी ओर। जिनमे अब भी गुस्सा साफ दिखाई दे रहा था।
"ये गलती दुबारा न हो इसलिए ही कहा गया था कि वापस मत आना। न कहने के बाद भी वापस आई कैसे थोड़ा बहुत भी आत्मसम्मान बचा है या नही?" उनकी तेज़ आवाज़ से बेडरूम के साथ दिल की दीवारें भी हिल गईं।

आत्मसम्मान!? ये शब्द कानों में पड़े तो मुझ पर जैसे हज़ारों पत्थर किसी ने एकसाथ बरसा दिए हैं मन-मस्तिष्क आत्मा सब लहूलुहान था।
आत्मसम्मान को ताक पर रख कर ही तो फिर से माफी मांगने का सोचा। लेकिन ये प्रतीक ने क्या कह दिया? वापस क्यों आई!?

क्या होगा आगे!? क्या इनका रिश्ता कभी सामान्य होगा? क्या प्रेरणा वापस  लौट जाएगी अपने घर अपने आत्मसम्मान के साथ?  या उसे मारकर प्रतीक के साथ इस रिश्ते को फिर से एक मौका देगी?  रक्षिता से जुड़े राज कब खुलेंगे!? जानने के लिए पढ़ते रहें "मेरा क्या कसूर।"


टिप्पणियाँ

सर्वाधिक लोकप्रिय

मेरे दादाजी (कविता)

धरती की पुकार

काश!