संभल जाओ धरा वालों
क्यों है आजकल विश्वास का परिणाम विश्वासघात,
हर जगह बिछी हो जैसे शतरंज की कोई बिसात।
किसी के लिए मायने नहीं रखते क्यूँ किसी के जज़्बात,
रिश्तों में क्यूँ मिलती है अब नफरत की सौगात।
भावनाशून्य इस जग में किससे करें अपेक्षा ,
अपने खुद ही नहीं कर पा रहे अपने रिश्तों की रक्षा।
मासूमियत निवेदन तो जैसे गुम है ,
भावनाएँ सहनशीलता जैसे कोई स्वप्न है।
हर एक भावना लगती अब तो सुन्न है,
ये सब देख के मन आज बड़ा ही खिन्न है।
क्यूँ अपनों को अपनों से बैर है एक नफरत सी हर और है,
ईर्ष्या छायी घनघोर है बस "स्व" का शोर चहुँओर है।
ये स्वार्थपरता कहाँ से आ गई इस देश में ,
राम ने शबरी के झूठे बेर खाए थे जहाँ वनवासी के भेस में।
जिस धरती पर कृष्ण अवतार दो माओं के बाल थे ,
आज एक माँ को रख नहीं सकते उसके चार लाडले लाल हैं।
हर अच्छाई का जैसे हो रहा अब अंत है ,
नहीं काम आते प्रवचन न उपदेश न सन्त हैं।
अनेकता में एकता जो पहचान थी इस धरा की ,
एकता तो अनेकता (जाति -पाँति ) ने जाने कब की हरा दी।
शायद इसीलिए अब बार बार यूँ होते शिव कुपित हैं,
दिखाते अपना रूप मचाते प्रलय त्वरित हैं।
सब कुछ देखकर भी मानव क्यूँ अनजान है ,
दिखी मुझे कल स्वप्न में शापित हो धरा सुनसान है।
(स्वरचित) dj कॉपीराईट © 1999 – 2020Google
हर जगह बिछी हो जैसे शतरंज की कोई बिसात।
किसी के लिए मायने नहीं रखते क्यूँ किसी के जज़्बात,
रिश्तों में क्यूँ मिलती है अब नफरत की सौगात।
भावनाशून्य इस जग में किससे करें अपेक्षा ,
अपने खुद ही नहीं कर पा रहे अपने रिश्तों की रक्षा।
मासूमियत निवेदन तो जैसे गुम है ,
भावनाएँ सहनशीलता जैसे कोई स्वप्न है।
हर एक भावना लगती अब तो सुन्न है,
ये सब देख के मन आज बड़ा ही खिन्न है।
क्यूँ अपनों को अपनों से बैर है एक नफरत सी हर और है,
ईर्ष्या छायी घनघोर है बस "स्व" का शोर चहुँओर है।
ये स्वार्थपरता कहाँ से आ गई इस देश में ,
राम ने शबरी के झूठे बेर खाए थे जहाँ वनवासी के भेस में।
जिस धरती पर कृष्ण अवतार दो माओं के बाल थे ,
आज एक माँ को रख नहीं सकते उसके चार लाडले लाल हैं।
हर अच्छाई का जैसे हो रहा अब अंत है ,
नहीं काम आते प्रवचन न उपदेश न सन्त हैं।
अनेकता में एकता जो पहचान थी इस धरा की ,
एकता तो अनेकता (जाति -पाँति ) ने जाने कब की हरा दी।
शायद इसीलिए अब बार बार यूँ होते शिव कुपित हैं,
दिखाते अपना रूप मचाते प्रलय त्वरित हैं।
सब कुछ देखकर भी मानव क्यूँ अनजान है ,
दिखी मुझे कल स्वप्न में शापित हो धरा सुनसान है।
(स्वरचित) dj कॉपीराईट © 1999 – 2020Google
इस ब्लॉग के अंतर्गत लिखित/प्रकाशित सभी सामग्रियों के सर्वाधिकार सुरक्षित हैं। किसी भी लेख/कविता को कहीं और प्रयोग करने के लिए लेखक की अनुमति आवश्यक है। आप लेखक के नाम का प्रयोग किये बिना इसे कहीं भी प्रकाशित नहीं कर सकते। dj कॉपीराईट © 1999 – 2020 Google
मेरे द्वारा इस ब्लॉग पर लिखित/प्रकाशित सभी सामग्री मेरी कल्पना पर आधारित है। आसपास के वातावरण और घटनाओं से प्रेरणा लेकर लिखी गई हैं। इनका किसी अन्य से साम्य एक संयोग मात्र ही हो सकता है।
नारी का नारी को नारी के लिए http://lekhaniblogdj.blogspot.in
सार्थक सृजन
जवाब देंहटाएंधन्यवाद जितेंद्र जी।
हटाएंजिस धरती पर कृष्ण अवतार दो माओं के बाल थे ,
जवाब देंहटाएंआज एक माँ को रख नहीं सकते उसके चार लाडले लाल हैं।
बहुत सुन्दर!
धन्यवाद मिश्रा जी
हटाएंक्यूँ अपनों को अपनों से बैर है एक नफरत सी हर और है,
जवाब देंहटाएंईर्ष्या छायी घनघोर है बस "स्व" का शोर चहुँओर है।
सुन्दर प्रस्तुति ...
आभार ज्योति जी
हटाएंकहाँ से लातीं हैं आप ऐसे शब्द? बहुत ख़ूबसूरत कविता
जवाब देंहटाएंसब आप जैसे महानुभावों से मिलने वाले प्रोत्साहन का परिणाम है अभिषेक जी।
हटाएंप्रतिक्रिया हेतु बहुत बहुत आभार ।
सुंदर शब्दों से सजी हुई रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार।
हटाएंसब कुछ देखकर भी मानव क्यूँ अनजान है ,
जवाब देंहटाएंदिखी मुझे कल स्वप्न में शापित हो धरा सुनसान है ..
दरअसल मानव इतना स्वार्थी हो गया है .. उसकी आँखों के आगे कला चश्मा अपना भला भी नहीं देखने दे रहा है ... कबूतर की तरह आँखें बंद किये है ... कटु यथार्थ लिखा है ...
जो आपने कहा वह बिलकुल सही और दुःखदायी सत्य है आदरणीय।
हटाएंआभार प्रतिक्रिया हेतु।
बहुत बहुत आभार अनूषा जी।
जवाब देंहटाएंTHANKYOU :)
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर एवं भावपूर्ण रचना.
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट : एक मंदिर ऐसा भी
आभार आदरणीय.
हटाएंThanks for following me.I am now following you back.Love you.Your blog is really great.
जवाब देंहटाएंhttp://findshopping.blogspot.in/2015/04/top-online-shopping-sites-list.html
you are most welcome.
हटाएंसब कुछ देखकर भी मानव क्यूँ अनजान है ,
जवाब देंहटाएंदिखी मुझे कल स्वप्न में शापित हो धरा सुनसान है।
...आज कल जो कुछ हो रहा है वह केवल मानव के अपने कर्मों का ही फल है. अगर वह अब भी नहीं संभला तो शायद उसे अफसोस करने का वक़्त भी नहीं मिले...बहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति..
सत्य है आदरणीय। प्रतिक्रिया हेतु आभार।
जवाब देंहटाएंयथार्थ चित्रण है जिससे असहमत नहीं हुआ जा सकता ---
जवाब देंहटाएं"किसी के लिए मायने नहीं रखते क्यूँ किसी के जज़्बात,
रिश्तों में क्यूँ मिलती है अब नफरत की सौगात।
भावनाशून्य इस जग में किससे करें अपेक्षा ,
अपने खुद ही नहीं कर पा रहे अपने रिश्तों की रक्षा। "
इस ब्लॉग पर आपका हार्दिक अभिनन्दन है आदरणीय।
हटाएंअपनी अनमोल प्रतिक्रिया व्यक्त करने हेतु आपका बहुत बहुत आभार।
आशा है इस रूप में आपका मार्गदर्शन आगे भी प्राप्त होता रहेगा।
सुंदर, सार्थक और भावपूर्ण अभिव्यक्ति, बधाई
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीय
हटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीय
हटाएंसुंदर संदेश देती सशक्त रचना.
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार
हटाएंभावपूर्ण , सुंदर और सार्थक अभिव्यक्ति, बधाई
जवाब देंहटाएंसुस्वागतम एवं आभार सर इसी तरह मार्गदर्शन रहिएगा यही अभिलाषा है।
हटाएंसब कुछ देखकर भी मानव क्यूँ अनजान है ,
जवाब देंहटाएंदिखी मुझे कल स्वप्न में शापित हो धरा सुनसान है।
...आज कल जो कुछ हो रहा ...बहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति..
बहुत बहुत आभार
हटाएंसार्थक भावपूर्ण अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंसुस्वागतम एवं आभार सर इसी तरह मार्गदर्शन रहिएगा यही अभिलाषा है।
हटाएंसुंदर सटीक सामयिक अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंसुस्वागतम एवं आभार आदरणीया इसी तरह मार्गदर्शन रहिएगा यही अभिलाषा है।
हटाएंसार्थक लेखन
जवाब देंहटाएंसुस्वागतम एवं आभार सर इसी तरह मार्गदर्शन रहिएगा यही अभिलाषा है।
हटाएं"क्यों है आजकल विश्वास का परिणाम विश्वासघात,
जवाब देंहटाएंहर जगह बिछी हो जैसे शतरंज की कोई बिसात। "
सुन्दर रचना
हार्दिक आभार मनोज जी
हटाएंAaj ke samay ko abhivaykt krti hui shandaar rachna
जवाब देंहटाएंआभार आपका
जवाब देंहटाएं