1)रूह का रिश्ता: एक अंधेरी रात



हॉरर लिखने में रुचि कभी रही नही। पर एक एफ एम प्रोजेक्ट के तहत इसे लिखना शुरू किया है। उम्मीद है नया प्रयास आप सभी पाठकों को पसंद आएगा🙏

रूह का रिश्ता: एक अंधेरी रात

एकदम वीरान से दिख रहे 2 मंज़िला भवन की दूसरी मंजिल पर  एक अंधेरी बालकनी से होती हुई तृषा एक कमरे की और जा रही है। यहाँ इतना सन्नाटा है कि हवा से हिलते पत्तों की आवाज़ भी सुनाई दे रही है। जिसे सुन तृषा का भय और बढ़ जाता है और इस भय के साथ बढ़ जाती है उसकी धड़कनें। जैसे जैसे उसके कदम आगे बढ़ते हैं उसकी बेचैनी और घबराहट बढ़ती चली जा रही है। उसे अपने आसपास अजीब सी हलचल महसूस होती है। 

"मैंने पहले ही कहा था कि मैं इस फ्लोर पर आऊँगी ही नहीं।  पता नहीं क्यों यहाँ आते हुए हमेशा अजीब सा लगता है। लेकिन किसी को मेरी बात सुननी ही नहीं है।" बड़बड़ाती हुई वह आगे बढ़ रही है।


अचानक अमर के कमरे के दरवाज़े तक पहुँचते ही उसके गले मे सेट किया हुआ दुपट्टा पीछे से कोई ज़ोर से इस तरह खींचता है कि उसका दम घुटने लगता है। उसकी चीख नहीं निकल पाती मगर वह छूटने का भरपूर प्रयास करती है, दुपट्टे को आगे से जोर से खींचते हुए वह इस पकड़ को ढीला करने का प्रयास करती है, लेकिन जितना ज़ोर वह लगा रही होती है उससे दुगना बल उसे दुपट्टे पर पीछे महसूस होता है। इस खींचतान में कमरे के बाहर सजी लकड़ी की दोनों मेज़ और उन पर रखे बड़े आकार के दोनों गुलदान भी गिर जाते है। उनके गिरने और टूटने की आवाज़ सुनकर उसकी बड़ी बहन रक्षा दौड़ती हुई आती है। उसके वहाँ आते ही सब कुछ सामान्य हो जाता है। तृषा के दुपपट्टे पर से वह अदृश्य पकड़ अचानक हट जाती है और तृषा के आगे की और जोर लगाकर दुपट्टा खींचने से एक झटके से तृषा ज़मीन पर आगे की और गिर जाती है। रक्षा उसके पास बैठ उसे उठाती है। तृषा बेहद घबराई हुई है। उसकी साँसे अटक सी जाती हैं। पूरा शरीर डर से काँप रहा होता है। 

तृषा को ऐसे देख रक्षा के नेत्र भी भीग जाते हैं।

रक्षा घबराई तृषा को रक्षा सहारा देकर शांत करने की कोशिश करती है। उसे नीचे हॉल में ले जाकर बैठाकर पानी देती है। 

उसके संयत होने पर पूछती है -"क्या हुआ?"

तृषा उसके गले लग ज़ोर ज़ोर से रोने लगती है। वह उसकी पीठ सहला उसे शांत करने की कोशिश करती है।

"क्या हुआ तृषा मुझे बताओ तो?" रक्षा एक बार फिर कोशिश करती है।


क्या होना है दीदी! वही अप्रत्याशित सा कुछ जो हर बार होता है। मैने आपसे कहा था न, मैं नहीं जाऊँगी उस कमरे में। लेकिन आपने मुझे कहा कि "सब तुम्हारे मन का वहम है। कुछ नहीं होगा।" काँपती आवाज़ में वह बोले जा रही थी। 

" आप नहीं मानती, लेकिन यहाँ कुछ तो है। आप जानती हैं, आज तो हद जो गई। मेरे दुपट्टे से किसी ने मेरा गला दबाने की कोशिश की। अब मैं उस कमरे में बिल्कुल नहीं जाऊँगी। चाहे कुछ हो जाए। दीदी मैं जब भी वहाँ जाने का सोचती भी हूँ न तो मेरे मन मे एक अजीब सी बेचैनी और घबराहट होने लगती है।" घबराई और काँपती आवाज़ के साथ एक साँस में ही वह बोल गई। ये सब कहते हुए उसका गला भर आया और रुलाई फिर से फूट पड़ी। 


"ठीक है मत जाना। अमर को कोई चीज़ चाहिए होगी तो मैं देख लूँगी। तुम आराम करो मैं यहीं बैठी हूँ। थोड़ी देर में वह आता ही होगा।" उसने तृषा को भरपूर सम्बल दिया।

थोड़ी देर में अमर भी आ गया।


अमर ने आकर देखा तृषा को हॉल में सोफे पर नींद लग गई है उसने रक्षा से पूछा दीदी तृषा को क्या हुआ? इतनी जल्दी सो गई!?


"पता नहीं अमर! ऊपर तुम्हारे रूम में तुम्हारे कपड़े लेकर रखने गई थी। फिर से पहले की तरह बर्ताव करने लगी बहुत डर गई थी। मेरे तो समझ के बाहर होता जा रहा है सब कुछ।" 

अमर यह सुनकर चिंता में पड़ जाता है।


"फ्रेश हो जाओ जाकर मैं तुम्हारे लिए खाना लगाती हूँ। कहकर रक्षा अंदर चली जाती है।"

रक्षा के जाने पर अमर, तृषा के पास बैठ जाता है। और सिर पर  हाथ रख सहलाने लगता है। उसे तृषा के माथे पर तेज गर्माहट महसूस होती है। वह उसकी कलाई पकड़ चेक करता है। तृषा तेज़ बुखार में तप रही होती है। अमर रक्षा को बुलाता है। 

"दीदी!...। रक्षा दीदी!!"

"हाँ!" वह किचन से ही चिल्लाती है।

दीदी तृषा को बहुत तेज़ बुखार है। वह घबराए स्वर में कहता है। 


रक्षा तुरंत दौड़कर तृषा को चेक करती है। बुखार तो काफी तेज है। अमर इसे उठाओ इसने कुछ खाया भी नहीं है खा लेगी तो दवाई देते हैं। दोनों तृषा को उठाने की कोशिश करते हैं मगर बुखार की तपन के कारण आई कमज़ोरी से उसकी आँखें एक पल के लिए खुलकर बंद हो जाती हैं। अमर किचन से ठंडा पानी लेकर आता है और तृषा के सिर पर पानी की पट्टियां रखने लगता हैं। रात के दस -साढ़े दस  के लगभग उसका बुखार उतरता है।उसके बाद तृषा आंखें खोल कर देखती है और पाती है कि अमर उसके पास ही बैठा है अमर उसका हाथ अपने हाथ में ले लेता है। 

तृषा जो थोड़ी देर पहले हुए हादसे के भय को अभी पूरी तरह अपने अंदर से निकाल नहीं पाई है, अमर के स्पर्श से उसकी भावनाएँ पिघल कर अश्रु रूप में बाहर आ जाती हैं। उस स्पर्श से उसे बेहद संबल मिलता है। वह कुछ कहना चाह ही रही होती है और अचानक से किसी कमरे से कुछ तेज़ी से गिरकर टूटने की आवाज़ आती है। 

रक्षा और अमर आवाज़ की दिशा में एक  कमरे की ओर बढ़ते हैं। यह तृषा का कमरा है जहाँ लगी अमर और उसकी तस्वीर लगी फ्रेम नीचे गिरी हुई होती है। और उस पर लगे काँच के टुकड़े टूटकर जमीन पर बिखरे होते हैं। 


"दीदी  आपको अभी लगता है कि सब मेरा वहम है!? हमें यहां 4 दिन हुए हैं और लगभग रोज कोई न कोई अजीबोगरीब घटना हो रही है। अब तो लगता है इससे तो हम गुना में ही अच्छे थे। वहाँ कम से कम यह सब तो नहीं हो रहा था। यहां आकर तो मैं अंदर से और भी बुरी तरह टूट चुकी हूँ।"

अमर और रक्षा पहले एक दूसरे को और फिर चिंतित हो तृषा को देखने लगते हैं।"


"उन्हें अपनी ओर देखता पाकर वह फिर कहती है "क्या आप दोनों अब भी मेरा भरोसा नहीं करेंगे!? यहाँ कुछ तो अजीब और अलग है। मुझे नहीं पता क्या? लेकिन यहां मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता।"


तृषा फ्रेम सही तरीके से नहीं रखी होगी शायद, हवा के झटके से गिर गई हो.? रक्षा उसे समझने का प्रयास करती है।


तृषा को रक्षा पर बेहद गुस्सा आने लगता है।

अच्छा! और दीदी आपको इस बारे में क्या लगता है.? 

इतने बड़े शहर में शहर के बीचोबीच बने मकान में इतना शोर होने के बावजूद इसकी दूसरी मंजिल पर इतना सन्नाटा क्यों छाया रहता है? ऐसे इस शहर में आधी रात तक गाड़ियाँ चला करती हैं। उनके रोड़ पर चलने की आवाज पूरे घर में सुनाई देती है। लेकिन ऊपर जाते ही अचानक अजीब सा  इतना गहन सन्नाटा कि हलकी सी हवा की आवाज को भी महसूस किया जा सकता है?

उसे तीखा सा जवाब दे, अमर की प्रतिक्रिया जानने के लिए आस भरी नज़रों से वह अमर के चेहरे पर अपनी नज़रें गड़ाए होती है। अमर और रक्षा दोनों के पास ही उसकी बातों का कोई जवाब नहीं होता।  उन्होंने इन चार दिनों में कभी इस बात पर गौर नहीं किया।


"तुम्हारी बात सही है तृषा, लेकिन हम अब क्या करें तुम ही बताओ। अपना घर छोड़कर क्यों आए यहाँ?  तुम्हारी इन सब समस्याओं के चलते तुम्हें उन सब बुरी यादों से निकालने के लिए ही न!" रक्षा उसे समझाती है।


" हाँ तृषा! दीदी सही कह रही है।परेशानी तो हमें वहाँ भी थी न, और वो सब हुआ भी वहीं था।" अमर ने कहा।


" हमें परेशानी वहां थी, इसीलिए तो मैं कह रही हूँ कि परेशानी यहाँ आकर और भी बढ़ गई है। पता नहीं दीदी क्यों पर  यहां आने के बाद मुझे सपनों में तो वह सब कुछ कभी नहीं दिखाई दिया जो गुना में होता था। मगर अब तो प्रत्यक्ष ही न जाने क्या क्या होता दिख रहा है।और सच कहूँ मैं जब से यहाँ आई हूँ, मुझे ऐसा लगता है कि मैं आप लोगों से बहुत दूर चली जाऊँगी। कहकर उसने सजल नेत्रों से दोनों को देखा।


ऐसी बातें नहीं करते तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है ऐसा करते हैं  कि हम कुछ खा लेते हैं। तुम दवाई लो और कल तुम मेरे साथ बिना किसी ना- नुकुर के डॉक्टर के पास चलोगी।

अमर की कोई बात कभी तृषा नही टालती खाने का मन नहीं होने पर भी अमर के कहने पर वह बेमन से उन दोनों के साथ खाने बैठती है। बाहर से बेहद शांत, तृषा के मस्तिष्क में अभी भी उथल पुथल मची हुई है। 

खाने के बाद अमर तृषा को दवाई देकर उसे सोने के लिए जाने को कहता है। वह बाहर हॉल में सोफे पर सो जाती है। दो दिन से डर के मारे वह कमरे में नहीं सो पा रही थी। रक्षा को भी  उसके साथ हॉल में सोना पड़ता है। अमर रक्षा के पास बैठ उसका सिर दबाता है। दवाई और अमर के स्पर्श के मिल जुले असर से, उसके तन और  मन को आराम  मिलता है, और वह जल्द ही गहरी नींद में चली जाती है। अमर भी ऊपर बने अपने कमरे में सोने चला जाता है।

तृषा की नींद खुल चुकी है। सुबह की जगमगाती रोशनी और हल्की ठंडी हवा की बयार में उसका मन कुछ शांत सा होता है।बुखार भी उतर चुका है लेकिन सुबह के नाश्ते के बाद अमर जबरदस्ती उसे डॉक्टर के पास ले जाने की ज़िद करता है।     हॉस्पिटल से आकर वह तृषा से कहता है - "चलो मेरे रूम में तुम्हारे हाथ की बनी चाय साथ पीते हैं। लेकिन तृषा वहाँ जाने से साफ मना कर देती है। और किचन में अमर के लिए चाय बनाने चली जाती है। 

अमर हॉल में बैठी रक्षा से कहता है "आपके कहने से हम यहां आए दीदी! लेकिन यहाँ आ कर क्या फायदा हुआ? हमने सोचा था कि तृषा की परेशानियां शायद कम हो जाएँगी।  लेकिन यहां तो स्थिति और बिगड़ती नज़र आ रही है।"

रक्षा खामोश है।


"दीदी! आपने देखा तृषा के चेहरे का तेज गायब हो गया है।  मैं कुछ भी करके अपनी पुरानी हँसती- खेलती, चुलबुली सी नाज़-नखरे करने वाली तृषा को वापस लाना चाहता हूँ। जाने वो कहाँ खो गई है। 

उसके मन का वहम है अमर! किसी अच्छे डॉक्टर को यहीं दिखाते हैं। बड़ा शहर है अच्छा इलाज मिल पायेगा उसे। रक्षा कहती है और  चाय लेकर आती हुई तृषा के कानों में ये बात पड़ जाती है। 

"मैं पागल नही हूँ। न ही डिप्रेशन में, न मेरी मानसिक स्थिति इतनी बिगड़ी हुईं है। अगर आपको लगता है कि उन सारी  पुरानी घटनाओं की छाप मेरे दिल दिमाग पर है और इसलिए मैं  इस तरीके का बिहेवियर कर रही हूं तो  यू बोथ आर थिंकिंग इन अ रॉन्ग वे।" रक्षा आहत होकर कहती है।

देखो तृषा, मैं तुम्हारी बात समझती हूँ पर अपने अनुभव से कह रही हूँ कि ऐसा होता है। 

खैर तुम लोग चाय पियो में लंच की तैयारी करती हूँ। कहकर रक्षा चली जाती है। 

रक्षा के जाने के बाद अमर तृषा के करीब जाकर बैठ जाता है और कहता है देखो तृषा आई टोटली अंडरस्टैंड योर फीलिंग्स। पर रक्षा दीदी सही कह रही है। इतना आसान नहीं है इतने सारे हादसों को भूलना। मजबूत से मजबूत इंसान भी टूट जाता है तृषा! लेकिन तुम क्यों चिंता करती हो?

मैं हूं ना! तुम्हारे साथ हर पल हर वक्त मैं तुम्हारा साथ कभी नहीं छोडूंगा, कहकर अमर तृषा का हाथ अपने हाथों में ले लेता है। उसकी नज़र तृषा के उतरे चेहरे पर टिकी हैं। अमर की आँखों मे भी उतनी गहरी उदासी उतर आई।

"बस तुम्हारा साथ ही है मेरे जीने का संबल। रक्षा दीदी और तुम न होते तो मैं किसके सहारे जीती? तुम्हारे साथ रहने के लिए तो मैं सब कुछ सहन कर सकती हूँ।"

काश पुराने दिन फिर वापस अजाएँ अमर कितने खुश थे, हम सब साथ। ये सब क्या होगया हमारी लाइफ में।

बातें करते हुए वे दोनों अतीत में खो जाते हैं 

कौन हैं रक्षा, अमर तृषा? इनका आपस मे रिश्ता क्या है? और क्या छुपा है इनके अतीत में? क्या तृषा को वाकई कोई वहम है? क्या वह मानसिक तौर से अस्वस्थ है या इन सबके पीछे कोई और ही राज़ छुपा है? जानने के लिए पढ़िए धारावाहिक "रूह का रिश्ता" का अगला एपिसोड ।

एपिसोड 2 पढ़ने के लिए क्लिक करें

रूह का रिश्ता:अतीत की यादें



टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही बेहतरीन कहानी सस्पेंस और रोमांच का उम्दा समायोजन

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  2. बहुत ही रोचक कहानी

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  3. क्या बात है लेखनी बिलकुल नए रस में डूबी हुई
    👌👌👌👌👌

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