जीवन सारथि (भाग 4)



जीवन सारथि कहानी का यह चौथा भाग है यदि आपने पिछले तीन भाग नहीं पढ़े हैं तो यहां क्लिक कर उन्हें पढ़ सकते हैं।

जीवन सारथि भाग 3

जीवन सारथि भाग 2

जीवन सारथि भाग 1

जीवन सारथि

भाग 4

"मैं बैठ सकता हूँ यहाँ?"

राजश्री की तरफ़ से कोई प्रतिक्रिया न पाकर, उसने पूछा।

"ये मेरा घर नहीं है, जहाँ बैठने के लिए आपको मुझसे इजाज़त लेनी पडे।"

"मुझे डिस्टर्ब किये बिना, आप जहाँ बैठना चाहें बैठ सकते हैं।" बेरुख़ी से राजश्री ने जवाब दिया।

उतरा सा चेहरा लिए वह सामने वाली कुर्सी पर बैठ गया। 

राजश्री अपनी डायरी में लिखने में तल्लीन थी। अंदर से थोड़ी असहज जरूर हुई पर दिखाना नहीं चाहती थी।

सामने बैठे व्यक्ति के चेहरे के भाव बता रहे थे कि वह कुछ कहना चाहता है। पर शब्द जैसे गले में ही अटक कर रह जा रहे थे।

"राssज...श्री.." बमुश्किल उसके मुंह से निकला।

प्रतिउत्तर में फिर सन्नाटा...और बेरुख़ी

"... मुझे तुमसे कुछ बात करनी है।"

"जो बात करनी है, उसमें बात करने जैसा कुछ नहीं है।"
राजश्री ने अपनी डायरी में ही नज़र गढ़ाए हुए रूख़ा-सा जवाब देकर, उसके किए कराए पर पानी फेर दिया।

"एक बार सुन..... "

"पेपर्स लाए हैं आप....?"
उसका अगला वाक्य पूरा होने से पहले ही राजश्री ने सवाल दाग़ दिया। सवाल पूछते हुए इस बार उसकी तीख़ी नज़रें सामने वाले शख़्स पर थीं।

"नहीं....."अरुचिपूर्ण सवाल का अत्यंत ठंडे स्वर में बेहद असहजता उस व्यक्ति ने जवाब दिया।

"फिर बात ख़त्म ही है मैं बता चुकी हूँ पहले ही..."
राजश्री बोली।

"मुझे दूसरे विषय में बात करनी है।" थोड़े अनमने भाव से वह फिर भी बोला।

जिस व्यक्ति की शक़्ल देखना भी राजश्री को गंवारा नही था, आज उसी को सामने बैठा देख बड़ी कोफ़्त हो रही थी राजश्री को। पर आसपास बैठे लोगों के सामने तमाशा न बने इसलिए बेहद संयत होकर उसे झेल रही थी। और इसी लोकलाज के चलते उसके सवालों के जवाब न चाहते हुए भी दे रही थी। अन्यथा कोई और मौका होता तो वह उससे मुख़ातिब होने की बात को ही सिरे से खारिज़ कर देती। इसी उधेड़बुन में आख़िरकार बेमन से बोली

"5 मिनिट हैं आपके पास... बोलिए।"

"जो कोर्ट में मेरे..."

इस पर बात करने की तो कोई गुंजाइश ही नहीं है....!! इस बार हिक़ारत सी नज़रों से उसकी और देखते हुए, उसकी बात काटते हुए राजश्री ने फिर उसे चुप कर दिया। 

इस जवाब के बाद गुस्से से भरी उस शख़्स की आँखें राजश्री पर टिकी हुई थीं।
जिन्हें नज़रअंदाज़ कर राजश्री वेटर की और रुख़ कर बोली।

"एक्सक्यूसमी, जेंटलमेन! मेरी चाय का क्या हुआ?"

"बस आ रही है मेम"

"Thanku"

कुछ पलों के सन्नाटे के बाद मजबूरी में वह शख़्स खुद को संयत करते हुए फिर बोला 

राजश्री भूल भी जाओ सब।

राजश्री ने ग़ुस्से से 1 नज़र उसे घूर कर देखा…

अबकी बार शर्मिंदगी भरे भाव से वह बगलें झांकने लगा

राजश्री भरे मन से पुनः अपनी डायरी के साथ व्यस्त हो गई।

शब्दों और नज़रों के इतने तीखे प्रतिघातों के बाद वह उठकर चला जाना चाहता था मगर आज उसका राजश्री से बात करना ज़रूरी था। अपने असली भावों को एक तरफ़ सरका के फ़िर से खुद को सामान्य कर वह वहीं बैठा रहा।

मेम आपकी चाय

वेटर चाय रख कर बोला

सर आप लेंगे कुछ

1 कॉफी

राजश्री डायरी बन्द कर अपनी चाय पीने में लग गई इस समय उसके अंदर मची उथल-पुथल, ग़ुस्से, घृणा के भावों को सिर्फ़ ये गर्म चाय ही ठंडा कर सकती थी।

सुक़ून से आंखे बंद कर वो चाय का 1-1 घूँट ऐसे पी रही थी, जैसे कोई अमृत पी रहा हो कुछ देर वह राजश्री को देखता रहा…और उसकी बेरुख़ी को नज़रंदाज़ करते हुए फ़िर बोल पड़ा।

मुझे 1 बात और कहनी है 
अब इसके सब्र का बाँध टूट गया कप लगभग जोर से टेबल पर पटकते हुए राजश्री उस पर बरस पड़ी। 

"मिस्टर विनोsssद!"
"कितनी बातें कहनी है आपको!?"
"ये पेपर, ये पेन।"
"लिख कर दे दीजिए ताकि मैं एक बार में सबका जवाब दे दूँ, और शांति से मेरा काम कर सकूँ। 

"दूसरी बात"

"मुझे बार-बार एक ही बात दोहराकर टाइम वेस्ट करने की आदत नहीं है।"
राजश्री ने खुद को संयत करते हुए मगर थोड़ी तेज़ आवाज़ में, तटस्थ भाव से उत्तर दिया।

"तुम बात को बढ़ा रही हो।"
उसने अपना पक्ष रखने की कोशिश की।


"मैं तो बात को कब का खत्म कर चुकी हूँ, हमेशा के लिए।"
"its you man."
"न मेरा आपसे कोई लेना देना पहले था न अब है और न कभी हो पाएगा।"
राजश्री एक सांस में सब बोल गई।


"यही तो मैं पूछना चाहता हूँ।"
"व्हाय!?"
"आफ्टर ऑल आय एम यॉर हस्बैंड।"
इस बार प्रतिउत्तर में उसकी भी आवाज़ तेज़ हो गई थी। जिसमें पति होने का अभिमान और पत्नि के बात न सुनने पर उसके मन का ग़ुस्सा साफ़ झलक रहा था 

बट आय एम नॉट योर वाइफ एनी मोर। उतनी ही तेज़ आवाज़ में उसी के सुर में राजश्री ने उत्तर दे डाला।

1-2 लोगों की नज़रों को ख़ुद पर महसूस कर वह स्वर धीमा कर बोली।
"आपको  मेरा हस्बैंड बने रहने में इंटरेस्ट है तो इट्स नॉट माय फॉल्ट।"

"मैं पहले ही आपको तलाक के पेपर्स दे चुकी हूँ, आपको उन्हें साइन करने में परेशानी है" 

"नाऊ प्लीज  मूव ऑन"

"आगे बढ़ें अपनी लाइफ में ओर मेरा पीछा छोड़ दें, बेहतर है।"
बिना रुके आगे भी उसी स्वर में एक सांस में  बोलकर जैसे अब वह इस बात को ख़त्म कर देना चाहती थी।"

पर विनोद कहाँ मानने वाला था। आज दिखावटी पछतावा तो जरूरी हो गया था।

"मानता हूँ मेरी गलती है मगर, मुझसे नहीं हो पाएगा।" विनोद अब थोड़े धीमे स्वर में बोला 

क्यों!? अब इतने सालों बाद क्यों समझ आरहा है कि नही हो पायेगा?

ये आप नहीं आपका स्वार्थ बोल रहा है महोदय मैं जानती हूँ, आप ये सुलह किस नियत से करने आए हैं कोई इतना भी खुदगर्ज़ कैसे हो सकता है मेरा आपका तो कोई रिश्ता हो ही नहीं सकता।

साथ वे लोग होते हैं जिनके विचार मिलते हों, जिनकी मानसिकता मिलती हो और सबसे बड़ी बात जो एक दूसरे के साथ मन से निभाने को तैयार हो और हाँ! सबसे महत्वपूर्ण बात! आपके हिसाब से जिन का स्टेटस भी एक सा हो राइट?

"मुझ" में, "आप" में, इनमें से एक भी समानता नहीं है तो बेहतर होगा कि इस पर बहस करके आप मेरा और अपना समय खराब न करें अब आपका स्टेटस मेरे लायक नहीं है।
विनोद मूक प्राणी सा बस सब सुनता रहा। सारे उसी के शब्द थे। बस कहने वाली ज़ुबाँ बदल गई थी वह कुछ कहने की स्थिति में नहीं था। सुनने के अलावा फिलहाल कोई चारा भी नहीं था।

"और जिनकी भावनाएं संवेदनाएं पूरी तरह मर चुकी हो ऐसे लोग मुझे मेरे आसपास भी नहीं चाहिए जीवन में।"
अपनी बात खत्म कर राजश्री ने चाय का आखरी घूँट पिया, कप रखा और जाने लगी।

विनोद की चुप्पी देख उसकी और रुख़ कर फीकी मुस्कुराहट लिए पलट कर बोली-

"वैसे भी चाय और कॉफी वालों का आपस में कोई मेल नहीं होता। ये बात देर से ही सही पर मेरे समझ मे गई है और मैं चाय कभी छोड़ नही सकती।"

ये गर्म लोहे पर हथोड़े की मार जैसा लगा विनोद को।

 बस अवाक् सा राजश्री को सुनता-देखता रहा।

 राजश्री तेज़ी से कैफ़े के बाहर निकल गई।

विनोद पराजित से योद्धा सा मुँह लटकाए, पहले जाती हुई राजश्री को और अब अपनी ठंडी हो चुकी कॉफ़ी की को निहारता रहा। 
*********

राजश्री बेहद मज़बूत थी। विनोद से किनारा करने के बाद दोबारा कभी उसने उसे याद नहीं किया। लेकिन, आज खुद को संयत नहीं कर पा रही थी। गाड़ी चलाते हुए भी पुराना अतीत उसका पीछा नहीं छोड़ रहा था। विनोद की सालों पहले कही एक एक बात उसके दिमाग मे आज जस की तस गूंज रही थी। सिर दर्द से जैसे फटा जा रहा था अब उसे  चक्कर से आ रहे थे। सांस जैसे कुछ देर के लिए बंद होती सी लगी। बैग से उसने १ टेबलेट निकाल कर खाई। कुछ देर गाड़ी रोक खड़ी हुई और फ़िर जैसे तैसे घर पहुँची। दरवाज़ा शालिनी के बेटे ने खोला।

"जय श्री कृष्णा मौसी"

अरे, वाह! चॉकलेट ! Thanku masi

भगवान को याद किया न! उन्होंने ही भेजी है।

खुश होकर दीपक चॉकलेट ले कर चला गया।

मगर राजश्री के चेहरे की मुस्कराहट आज गुम थी।

शालिनी राजश्री का चेहरा पढ़ने की कोशिश करती रही।

"कुछ टेंशन में हो दीदी"

"नहीं, कुछ खास नहीं, शालिनी!

"मैं अंदर जा रही हूँ प्लीज़ 1 कप चाय बना दो फिर 1 घण्टे में निकलते हैं"

कहकर राजश्री अपने कमरे के बाथरूम में चली गई। 


चाय इस वक़्त?

रानी ने आश्चर्य व्यक्त किया।

"दो ही व्यसन हैं हमारी दीदी को। एक डायरी लिखने का दूसरा चाय का।"

"सुख में चाय, गहरे दुख में चाय, लिखे तब चाय, पढ़ें तब चाय, काम कर रही हो तो चाय, खाली बैठी हो तो चाय।"


"आज जरूर परेशान है, जब भी कोई दर्द सताता  है उन्हें चाय ज़रूर याद आती है।"

"पर हुआ क्या होगा!!??"
रानी आश्चर्य और दुख मिश्रित स्वर में बोली।

"कौन जाने!? शायद कोई हम-सा ही मिल गया हो! दुखियारा! और तो कोई दुःख उनको छू भी नहीं सकता। वे चाहे तो हमेशा खुश रह सकती है। अच्छी कमाई है। अपने दो घर हैं, गाड़ियां हैं, बढ़िया जीवन है। फिर भी औरों को अपना बना कर उनके दुखों को आत्मसात करके खुद परेशानी ओढ़ लेती हैं और उन्हें खुशियों की चादर ओढ़ाने की हरसंभव कोशिश करती रहती हैं।"

"उनसे दुख नही देखा जाता किसी का विशेष कर के औरतों का।"

"न जाने लोग कैसे कह देते हैं, औरतें, औरतों की दुश्मन होती है! दीदी को देख कर लगता है इनसे अच्छा औरतों का सहयोगी और दोस्त तो कोई और नही हो सकता!" रानी सोचने लगी।

"चलो चाय बना दें।"
शालिनी और रानी बातें करते हुए चाय बनाने में लग गईं।

राजश्री नहाकर बाथरूम से निकली और विचारों में गुम हो गई।
काश! इस पानी से अंदर के सारे ग़म दर्द परेशानियाँ  भी धुल जाती। एक ठंडी सी आह भरी उसने। सर अभी भी भारी था उसका ओर उसके सरदर्द की एकमात्र दवा चाय आ चुकी थी

"रानी ठीक है न?"

"हाँ, दीदी!"

"मगर आप मुझे ठीक नहीं लग रहे।"
शालिनी ने चिंतित स्वर में कहा।

"ठीक हूँ, सिरदर्द है बस थोड़ा।"

"मुझे थोड़ी देर अकेले बैठना है। तुम जाने की तैयारी कर लो सात बजे हम निकल ही जाएँगे।"

और राजश्री अपनी डायरियाँ  निकाल कर बैठ गई कुछ देर बैठ कर सबसे पहली डायरी के कुछ पन्ने पलटे, फ़िर बैठ कर यूं ही शून्य में नज़र गढ़ाए, कुछ सोचती रही। सोचते-सोचते आँखें भर आई उसकी।

फिर आख़री वाली डायरी खोल कर कुछ लिखने बैठ गई, शून्य में ताकते हुए कुछ देर यूँ ही बैठी रही कुछ सोच रही थी शायद।

आँखें बंद की तो पलकों से आंसू बाहर ढुलक आए। उसने उठकर मुँह धोया, अपना कप उठाकर किचन वाश बेसिन में ले जाकर धोने लगी।

रानी ने कप हाथ से लेकर धोने के लिए उठना चाहा,
मगर शालिनी में उसे रोक दिया।
"वे नहीं धोने देंगी एक ही कप है ना। और बर्तन रखे होते अगर तो रख़ देतीं।"

"चलो फटाफट।"
हाथ धोते हुए राजश्री ने कहा।

रानी अब राजश्री को लेकर एकदम आश्चर्य से भरी हुई थी।
ऐसा किरदार उसने पहली बार देखा जीवन में। होते तो कई होंगे, पर उसका पाला पहली बार पड़ा। थोड़ा बहुत समझ रही थी अब उसे।

सख्त पर कोमल ह्रदय की राजश्री ने उनके हृदय पे अपना राज 1ही दिन में कर लिया था जैसे वो सब से मिलते ही पहली मुलाकात में कर लिया करती थी। बातों की धनी राजश्री दूसरों के लिए जितनी नर्मदिल थी, अपने लिए उतनी ही कठोर थी। अपने दुख किसी से नही कहती। सिवाय ईश्वर और अपनी डायरी के। उसका मानना था कि उसे सिर्फ दूसरों के दुख परेशान करते हैं हर हाल में उसे इनसे निकालना चाहती थी। अपने दुख उसे संबल देते।

सामान लेकर चारों बाहर आ गए।

"शालिनी!"

"हाँ, दीदी!"

"आज आधे रास्ते ड्राइविंग तुम्हें करनी होगी।
शुरू में मैं ही ड्राइव करती हूं। जब ऋषभ सो जाए तो तुम ड्राइविंग सीट पर आ जाना।"

"मेरा सिर बहुत दर्द कर रहा है, कमर भी। वीणा को हाँ कह दिया है तो जाना जरूरी है।"

"जी दीदी।"
शालिनी ने हामी भरी।


शालिनी और शालिनी का बेटा पीछे बैठे। आगे रानी और राजश्री ड्राइवर सीट पर।

रानी बस राजश्री को देख रही थी। इस वक़्त उसके मस्तक पर सोच विचार चिंता की लकीरें साफ दिख रही थीं। आंखे सामने रोड की और जमी थी और हाथ स्टेयरिंग पर सधे। उस पर उसके अपने आंतरिक तेज से दमकता चेहरा, जैसे कोई दिव्य आत्मा हो। कोई इतना अच्छा और परफेक्ट कैसे हो सकता है…? 1 पल को प्रसन्नता, फिर आश्चर्य, शंका और रश्क के भाव एक साथ आ गए उसके मन में।

"क्या हुआ।"

सोच विचार में गुम रानी अचानक आए राजश्री के प्रश्न से चौंक गई। उसे अंदाजा ही नहीं रहा उस पर राजश्री का ध्यान कब से था।

"नहीं-नहीं! दीदी!" सकपकाकर रानी बोली।

"रानी! मैं समझ सकती हूं,तुम्हारी स्थिति। मगर कब तक लेकर बैठे रहोगी…? हमें पुरानी बुरी बातें भूलकर जीवन में आगे बढ़ जाना चाहिए, यही सही होता है।"


"हाँ, दीदी!"

रानी को समझाते हुए, राजश्री ने भी अब खुद को थोड़ा बहुत संयत कर लिया था और ध्यान ड्राइविंग पर देने लगी। पीछे की सीट पर मां, शालिनी के साथ बैठा ऋषभ कुछ देर तक बातें करते हुए सो गया।

उसे सुला कर शालिनी ड्राइविंग सीट पर आ गई राजश्री भी पीछे की सीट पर सिर टिका, आंखें बंद कर, आराम करने लगी

"वाह! दीदी! आपको ड्राइविंग भी आती है!?"
रानी ने शालिनी से पूछा।



हाँ ड्राइविंग तो मुझे दीदी ने ही सिखाई है। दीदी हमेशा कहती हैं हमें स्वयं पर ही निर्भर होना चाहिए और दुनिया में जितनी चीजें सीख सकते हैं जरूर सीखनी चाहिए कब किस चीज की जरूरत पड़ जाए कहा नहीं जा सकता।
खाली रोड पर सामान्य से थोड़ी तेज़ गति से भागती गाड़ी में बातें करते हुए ये सफर कब कट गया मालूम भी नहीं पड़ा। लगभग साढ़े 3 घण्टे में वे वीणा के घर पहुंच गए। ऋषभ भी उठ गया था।

राजन्शी दौड़ कर राजश्री के गले लग गयी।
"जय श्री कृष्णा! मासी!"

"जय श्री कृष्णा! मेरी चिड़िया हमेशा खुश रहो!"

नन्ही राजन्शी चहकती हुई अब इन दोनों के पास आगई।

"जय श्री कृष्णा! शालिनी मासी!"
"रानी मासी! जय श्री कृष्णा! आप कैसे हैं!?"
रानी आश्चर्य में भर गई उसका नाम बच्ची की मीठी आवाज़ में सुनकर नीचे बैठ उसके गालों पर प्यार से हाथ रख बोली
"आप मेरा नाम जानती हो?"

"हाँ! मम्मी ने बताया था कि मेरी एक ओर बेस्ट फ्रेंड बनने वाली है।" राजंशी चहकी।

"आप मेरे साथ मेरी डॉल से भी खेलना हाँ।मैं अपने खिलौने सबके साथ शेयर करती हूँ।"
"जरूर खेलूंगी और आप खुद भी सच में बहुत ही प्यारी डॉल हो।"
दोनों का वार्तालाप सुन सब हँसने लगे।

राजश्री ने वीणा को घूर कर देखा, वीणा कान पकड़ते हुए मासूम बच्चे सी बोली-

"क्या करूँ, दीदी! आपकी चिड़िया ने इतनी रट लगाई हुई थी कि मौसी को फ़ोन करो। वे आ रही हैं या नही वरना मैं बर्थडे नहीं मनाऊँगी तो मुझे आपका सरप्राइज इसे बताना पड़ा।"
"सो सॉरी!"

"चलो कोई नहीं।"
राजंशी को देखकर सब अपनी सारी परेशानियां भूल गए थे।

"अच्छा इस सबमे आप ऋषभ को तो भूल ही गए।" वीणा ने राजंशी से कहा।

"अरे! भूली कहाँ मम्मा वो तो मेरे भाई है ना!? और भाई तो बहनों की मदद के लिए होते हैं ना!? कहते हुए वो राजश्री, शालिनी, रानी, वीणा सबका हाथ पकड़ उन्हें सोफ़े तक ले जाकर बिठाते हुए बोली चलो आप सब यहाँ बैठो तो मैं ऋषभ भैया के साथ सबके लिए पानी लेकर आती हूँ।"

कहकर, जबरदस्ती वो ऋषभ को भी किचन में ले गई।
उसकी मीठी-मीठी बातें सुन सब माहौल सबकी हंसी से खुशगवार सा हो गया था।

"सच, दीदी! आप सही ही कहते हो! चिड़िया ही है! हरदम चहकती रहती है!" वीणा ने कहा।

ईश्वर करे हमेशा यूँ ही चहकती रहे।राजश्री ने स्मित मुस्कान और स्नेहासिक्त भाव से मन ही मन उसे आशीर्वाद दे दिया।

दोनों बच्चों ने सबकी जलसेवा की।

खाना खाकर, सबने मिलकर अंताक्षरी खेली। रानी को तो राजंशी इतनी भा गई कि वो उसका साथ 2 पल के लिए भी नहीं छोड़ना चाहती थी। राजश्री भी ये देखकर खुश थी कि रानी को जिस उद्देश्य से यहाँ लाए हैं, वह पूरा हो गया समझो। कुछ समय में शायद पिछली सब घटनाएँ अब ये भूल जाएगी।

बच्चों और बड़ों का दूध, चाय पीने का दौर चला और कुछ देर बाद सब सोने चले गए वीणा रसोई में सुबह की कुछ तैयारियां करने में लग गई तो राजश्री भी छत पर आ गई।

ठंडी हवा में फुर्सत से वो ना जाने कितने समय के बाद बिना किसी काम के इस तरह फ्री खड़ी थी।
आँखें बंद कर उस ठंडक को चेहरे पर महसूस कर वह सोचने लगी, गर्मी के गर्म दिंनो में हवा की ये ठंडी बयार कितना सुकून देती है।

काम खत्म कर , वीणा राजश्री जी  को ढूंढते हुए छत पर आई।
अच्छा! तो हवा खानी थी आज आपको!? इसलिए खाना कम खाया क्या!? 

वीणा की आवाज सुनकर राजश्री ने पीछे मुड़कर देखा और मुस्कुरा दी।

"क्या बात है भाई! आज हमारी खुशमिज़ाज़ दीदी किन विचारों में गुम है?"

"क्या कहूँ रे!"

"जो मन मे है वो।"

राजश्री कुछ न बोली।

"दीदी! आप न, उदास न रहा करो आप मेरे लिए भगवन ही हो। आपको उदास देखकर मैं परेशान हो जाती हूँ।"

"बहुत गलत है वीणा उनका दर्ज़ा किसी को भी यानी किसी को भी नहीं दिया जाता समझी?"

"ठीक है फिर आप न, भगवान न सही आप मेरी जीवन सारथि हो दीदी!"
"याद है!?आपने मुझे क्या कहा था? कौन होता है असली जीवन सारथि...? और मेरे जीवन रथ को सही मार्ग में ले जाने वाली तो आप ही हो न!"
"सच! मैं जिस माहौल में जन्मी, पली-बढी, जिस इंसान से शादी हुई उसके बाद तो मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि मैं कभी इतने सुकून और खुशी से जी पाऊँगी। आपका एहसान न जाने कैसे चुका पाऊँगी।"

"आसान है, उसके लिए अब तुम रानी, शालिनी जैसी सब औरतों की जीवन सारथि बन जाना।"


"सारथि तो आप ही अच्छी हो। दीदी!"


"हाँ! लेकिन, कभी न कभी तो सारथि साथ छोड़ेगा ना? कभी तो उसके हाथ कंपकपाएँगे डोर संभालने में।"

ऐसी बातें करनी ही क्यूँ होती हैं आपको? नाराज़गी भरे भावों से वीणा बोली।

हर पल भावनाओं के साथ नहीं जी सकते वीणा। ये तो जीवन का सच है। आगे के लिए कुछ तो सोचना होगा न। ये सब खत्म हो जाने के लिए बिल्कुल नहीं शुरू किया है मैने।

और कभी न कभी तो जीवन साथ छोड़ेगा न तुम्हें एक बात बतानी है आज... जब मैं तुम सबको छोड़ के जाऊँ, तो मेरे...

बस अब आप चुप हो जाओ दीदी। इतने दिन बाद मिले हैं और उसमें भी ऐसी बातें। ये सब बातें बाद में करेंगे हम।

"अरे सिर्फ बता रही हूँ तुम्हें याद रखना ये बातें..."

"खैर छोड़ो ये बताओ सारी तैयारी हो गई न कल की?"

"हां, दीदी! बहुत अच्छे से।"

"चलिए अब आप भी आराम कीजिए कल बहुत से काम हैं। संस्था का कार्यक्रम दोपहर का तय किया है।" शाम को आपको निकलना भी है न?"
**********

सुबह से सब जन्मदिन की तैयारियों में लग गए।
सबने मिलकर सजावट से लेकर सारे छोटे बड़े काम आपस में बांटकर निपटा लिए गए थे।
राजश्री कल विनोद से मिलने के बाद से ही से तेज़ सरदर्द और कमरदर्द से परेशान थी जो आज भी सुबह से जारी था।

सुबह सुबह सब लोग राजंशी के साथ मंदिर गए। वहाँ से आकर राजंशी का जन्मदिन उसके बराबरी के बच्चों के साथ पहले केक काटकर मनाया और फिर सब बच्चों को राजंशी ने रिटर्न गिफ़्ट में पौधा दिया। और वीणा ने सभी से ये कहा कि अगले साल तक उन्हें इस पौधे की देखभाल कर इसे बड़ा कर राजंशी को यही पौधा जन्मदिन के उपहार स्वरूप देना है।

रानी ने ऐसी अनोखी पार्टी पहली बार देखी और वह इस माहौल में बेहद खुश और सकारात्मक महसूस कर रही थी।

इसके बाद सभी लोग संस्था पहुँचे। राजश्री ने बस यूँ ही यहाँ कुछ जरूरतमंदों को एक साथ कर रखा था। जिसमे महिलाओं और बुजुर्गों की संख्या ही सबसे ज्यादा थी। इस संस्था का पंजीकरण अभी बाकी था। राजश्री की अनुपस्थिति में वीणा ही यहां सब संभालती थी।

सबको राजंशी के जन्मदिन का केक और खाना खिलाया गया।

राजंशी सहित सभी ने भी खाना यही सबके साथ खाया।

राजंशी और ऋषभ की चहल पहल ने संस्था के माहौल को और खुशनुमा बना दिया था। रानी भी वहाँ सबसे घुल मिल रही थी।

राजश्री ने जरूरी बातों का जायज़ा लिया और वीणा से कहा कि अब संस्था को ढाई वर्ष पूरे हो चुके हैं तो इस बार पंजीकरण के लिए आवेदन की तैयारी कर के रखे। बाकी सब वह देख लेगी। वह चाहती थी कि संस्था अब जल्द से जल्द पंजीकृत हो तो व्यापक स्तर पर लोगों की मदद हो सके।

शाम हो चली थी राजश्री, शालिनी और ऋषभ अब निकलने की तैयारी में थे। रानी को वे कुछ दिन वहीं छोड़ने का सोच कर ही आये थे। रानी स्वयं भी राजंशी, वीणा और संस्था के लोगों से घुल मिल गई थी तो बिना किसी आपत्ति के खुशी से वहां रुकने को तैयार हो गई।


तीनों ने राजश्री को भाव भीनी विदाई दी। मन तो किसी का भी नहीं भरा था। सब कुछ और पल साथ बिताने की आस संजोए थे। चिड़िया तो राजश्री को जाने देना ही नही चाहती थी। पर सबके समझाने पर मान गई कि राजश्री का जाना जरूरी है।

कार में बैठते ही न जाने क्यों फिर एक बार विनोद का ख्याल उस पर हावी हो गया। शादी से लेकर तलाक देने के बाद तक राजश्री को कभी उसका कोई ख्याल नहीं आया। वो मजबूती से अपने जीवन में आगे बढ़ती रही, लेकिन आज अचानक से उसका फिर से सामने आ जाना अप्रत्याशित सा था।

तेज़ सिरदर्द,कमर दर्द आज पीछा नहीं छोड़ रहा था। अब तो उसे सांसे भी धीमी होती सी लग रही थी। उधेड़बुन में ही उसने गाड़ी पेट्रोल पंप पर रोकी। कुछ गोलियां खाई। पेट्रोल भरवाया और उतर कर शालिनी से कहा कि ड्राइव वो ही करे। बाहर निकली ही थी कि पेट्रोल भरवाकर निकली एक बाइक पर उसकी नज़र पड़ी जिस पर पीछे बैठी 1 बच्ची का दुपट्टा बाइक के टायर को लगभग छू चुका था। राजश्री उसके पीछे भागती हुई ज़ोर से चिल्लाई, जिससे बच्ची तो आगाह हो गई और दुपट्टा सम्भाल लिया, मगर राजश्री वहीं गिरकर बेहोश हो गई। शालिनी दौड़ कर उसके पास गई देखा तो राजश्री पसीने से पूरी तरबतर थी और उसके हाथों पर कुुु नीले से धब्बे दिखने लगे। शालिनी बहुत घबरा गई। कुछ लोगों की मदद से राजश्री को गाड़ी में लिटाया और पूछते पूछते उसे पास के एक हॉस्पिटल ले गई।
कहानी जारी है...


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