जीवन सारथि


जीवन सारथि

भाग-1 


ईश्वर की महिमा अपरम्पार है। किस रूप में कब कहाँ किसे मिल जाएं कहना मुश्किल है।
कुछ वर्ष पहले इसी विद्यालय में उसे भी तो ईश्वर के एक रूप के दर्शन हुए थे। राजन्शी के स्कूल की घंटी की आवाज़ ने सोच मे डूबी वीणा की तन्द्रा तोड़ी इसी घंटी ने कुछ वर्ष पूर्व उसके जीवन की नई राह का शुभराम्भ किया था। छुट्टी होते ही राजन्शी दौड़ाते हुए आकर वीणा के गले लग गई।


"हाउ वाज़ योर डे?" वीणा ने पूछा । 
"परफ़ेक्ट ममा."


अपनी प्यारी सी 6 वर्षीय बेटी के मुँह पर मुस्कुराहट के साथ बिखरे शब्द सुनकर वीणा भावविभोर हो गई। बेटी के हाथ से स्कूल बैग लेकर एकदूसरे का हाथ थाम कर दोनो माँ बेटी चल पड़ीं । वीणा के विचारों की त्सुनामी अब भी सुर मिला रही थी उसके क़दमों की ताल से। 
ये विद्यालय उसके जीवन मे नींव का पत्थर साबित हुआ था। राजश्री मेडम का तबादला हुए 3 वर्ष हो चुके थे अब। 
लेकिन वीणा को वे आज भी भुलाये नहीं भूलती और न ही वह मन ही मन रोज़ उन्हें धन्यवाद देना भूलती है। उसके लिए राजश्री जी भगवान के समान थीं। आखिर वीणा को नयी ज़िन्दगी तो उन्होंने ही दी थी । कितने कष्टों से भरी थी उसके जीवन की राह। उस समय अगर वे नहीं होतीं तो वीणा आज भी उसी नर्क में घुट रही होती। उस दिन भी इसी तरह बजी स्कूल की घंटी ने ही तो जीवन बदला था उसका। वरना आज भी वो इस स्कूल मे चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी का जीवन व्यतीत करती हुई, उस घर मे नर्क सी यातना भोगते हुए ही जी रही होती।

मम्मा हम कहाँ जा रहे हैं ? आज आप अपनी स्कूटी क्यों नहीं लाए ? मेरे पैर दर्द कर रहें हैं ।

राजन्शी की आवाज़ ने उसकी तन्द्रा तोड़ी अपने अतीत के विचारों में वो ऐसी खो गई थी की उसे ध्यान ही नहीं रहा नन्हीं राजन्शी को पैदल चलाते हुए वह काफ़ी दूर आगई है।

"अरे सो सॉरी बेटा अभी ऑटो रुकवाते हैं आज मेरी स्कूटी का टायर पंक्चर हो गया था तो उसको ठीक करने के लिए छोड़ आई हूँ और आपके बर्थडे की शॉपिंग भी तो करनी है न हमें ?"

ये सुनते ही नन्हीं राजन्शी के चेहरे पर बड़ी सी मुस्कान आगई। वह खुश होते हुए बोली मम्मा आज हम आइसक्रीम भी खाएँगे..... जरूर खाएँगे रानी बिटिया । कहते हुए उसने रोड के उस पार जाते ऑटो वाले को हाथ दिखाया उसके रुकते ही उसने राजन्शी को गोद में उठाकर रोड क्रॉस किया और ऑटो में बैठ गई ।

दोनों मार्केट पहुँचे। वीणा ने सोचा बच्ची को भूख लगी होगी उसने राजन्शी से कहा "पहले हम कुछ खा लें ,फिर शॉपिंग करेंगे।

"ओके मम्मा" राजन्शी ने कहा । खाकर जब दोनों खाना खाकर  रेस्टोरेंट से बाहर आए तो राजन्शी को आइसक्रीम की शॉप दिख गई।

"मम्मा" कहकर तुरंत उसने उँगली आइसक्रीम पार्लर की तरफ घुमा दी। वीणा को हंसी आगई।

राजन्शी भी मुस्कराते हुए बोली "अभी"।

"ओके मैडम चलिए अभी खिला देते हैं।" सुनते ही राजन्शी ख़ुशी से उछल पड़ी ।

आइसक्रीम पार्लर में जाकर वीणा ने दो आइसक्रीम ली। अपने लिए वनीला और राजन्शी के लिए चॉकलेट फ़्लेवर । काउंटर पर बिल देने लगी तो उसमें तीन आइसक्रीम का बिल बनाकर दिया हुआ था। उसने पूछा तो बताया कि एक आपकी बेटी लेकर बाहर गई है। वीणा ने पीछे मुड़कर देखा तो राजन्शी वहां नहीं थी। वो घबरा गई और पैसे देकर तुरंत बाहर निकली अपने दाएं बाएं देखा तो राजन्शी उससे 8 -10 क़दम दूर थी और उसी की तरफ आ रही थी ।

"राजन्शी आप कहाँ गये थे बेटा मैं कितना डर गई थी।" राजन्शी की और बढ़ते हुए वीणा थोड़े गुस्से में बोली।

"सॉरी मम्मा, मैं तो बस आज के हैप्पीनेस मोमेंट के लिए गई थी।"

"लेकिन आपको मुझे बताना चाहिए न बेटा, ऐसे मार्किट में बिना मम्मी के अकेले घूमना रिस्की है।"

'सॉरी मम्मा, आगे से पक्का ध्यान रखूंगी। अब मेरी आइसक्रीम तो दे दो प्लीज़ पूरी ही पिघल रही है।'

"हाँ ये लो, मगर आज का आपका हैप्पीनेस मोमेंट मुझे भी तो बताओ।"आइसक्रीम खाते हुए वीणा बोली।

हाँ मम्मा,चलो मैं दिखाती हूँ। जब हम रेस्टोरेंट से बाहर निकले और आप बिल दे रह थे तब एक बच्चा 1 आंटी से कह रहा था, उसे आइसक्रीम खानी है और आंटी कह रही थीं कि उनके पास पैसे नहीं हैं, आइसक्रीम नहीं ले सकते। उनके कपड़े भी फटे थे तो मुझे लगा मुझे आज का हैप्पीनेस मोमेंट मिल गया। इसीलिए मैंने अभी आइसक्रीम लेने को कहा" आइसक्रीम पर अपनी जीभ फिराते हुए राजन्शी मुस्कुराते हुए बोली। सुनकर वीणा के चेहरे पर गर्वमिश्रित मुस्कान तैर गई और साथ ही मन में उमड़ पड़ा बेटी के लिए ढेर सारा प्यार। बात करते हुए वीणा को राजन्शी उनके पास ले गई।

बच्चा पास ही बैठा ख़ुशी से आइसक्रीम खा रहा था। राजन्शी को देख कर उस बच्चे की माँ तुरन्त खड़ी हो गई वीणा को देख हाथ जोड़ बोली, "बाईजी सा आपकी लड़की खूब समझदारऔर दयालु है।"

मुस्कुराते हुए उसे वीणा ने पूछा कुछ काम करती हैं आप? उसने बताया कि जब जो मिल जाए। कभी मिलता है कभी नहीं। सुनकर वीणा ने उसे 1 एड्रेस समझाया और कहा कि यहाँ आप चले जाइए। कल दोपहर आपको काम मिल जाएगा।

"कहाँ रहती हैं आप?"

"जहाँ जगह मिल जाए।"

वीणा के प्रश्न के जवाब में महिला ने आँखों में अश्रु भरते हुए कहा।

आपके बेटे का दाख़िला मैं सरकारी स्कूल में करवा दूंगी, इसे स्कूल भेजना शुरू कीजिए।

"बिना शिक्षा के जीवन का कोई अर्थ नहीं होता" कहते हुए उसने एक ठंडी सी आह ली। साथ ही उसे वीणा ने 100 रुपये दिए और कहा आज का दिन इसमें चलाइए । कल आपको आपके काम का एडवांस दिलवा दूंगी। मगर मैने आप पर भरोसा किया है, इसे भूलियेगा नहीं और अपना काम पूरा ईमानदारी से कीजिएगा।"

औरत की आँखों से अश्रुधारा बह निकली हज़ारों दुआएं देती हुई वह वीणा के पैर छूने लगी वीणा ने उसे रोकते हुए कहा ये सब ईश्वर का किया है तो ईश्वर का धन्यवाद दीजिए । उसने राजन्शी को भी खूब दुआएं दीं और वादा किया वह पूरी ईमानदारी से काम करेगी। सुनकर वीणा की ऑंखें भी भीग गईं। राजन्शी ये पूरा नज़ारा बड़े ही ध्यान से देख रही थी अपनी माँ की ही तरह वह बहुत संवेदनशील थी। छोटी सी उम्र में बहुत समझदार भी। ये वीणा की परवरिश का ही असर था और राजश्री जी की संगत का परिणाम। शॉपिंग करते हुए पूरे रास्ते राजन्शी के मासूम सवालों से घिरी रही वीणा..

"मम्मा वे बार बार रो क्यों रही थी"?

"आपके पैर क्यों छू रही थी"?

और "आप क्यों रो रहे थे" आदि इत्यादि ।

वीणा सभी सवालों के समझाइशभरे और उसके बासुलभ मन को संतुष्ट कर देने वाले उत्तर देती रही तब जाकर वह शांत हुई।

दोनों शॉपिंग करके घर जाने लगीं। राजन्शी ने अपनी पसंद की कुछ चीजें लीं थीं। कुछ वीणा ने अपने हिसाब से उसे दिलवाई थीं .ऑटो रुकवा कर दोनो घर पहुंची । राजन्शी को यूनिफॉर्म बदल कर हाथ मुंह धोने के लिए निर्देशित कर वह भी कपडे बदलने चली गई। फ्रेश होकर उसने राजन्शी का होमवर्क उसे बताया उसके मस्तिष्क में अब भी वह औरत और उसका बेटा घूम रहा था। उनकी दशा याद करके वीणा की आँखें नम हो गईं ।

उसने राजन्शी को कहा "थैंक्यू बेटु आज आपकी वजह से मम्मा को भी हैप्पीनेस मोमेंट मिल गया।"

"वेलकम मम्मा" राजन्शी की मीठी आवाज़ गुंजी।

वह मुस्कुराती हुई खाने के लिए कुछ बनाने किचन की तरफ जाने लगी। आज रह रह कर उसकी आँखों के सामने उसका अपना अतीत घूम रहा था।

मेरे जीवन में अगर राजश्री जी ना आतीं तो शायद मैं भी इसी तरह दर दर भटक रही होती। सोचकर उसकी रूह काँप गई और उसी के साथ राजश्री जी के प्रति उसके मन में बसी प्रेम और श्रद्धा और भी बढ़ गई।

अपने तीन भाई बहनों मे दूसरी सन्तान थी वह। पिता का साया तो बचपन मे ही उनके सर से उठ गया था। 
माँ ने जैसे-तैसे तीनों को पाल-पोसकर बड़ा किया। पढ़ाना तो बहुत दूर, उन्हें रोज़ एक वक्त का पेटभर भोजन मिल जाना ही नसीब की बात थी। कमाना और पेट भरना, उस परिस्थिति में कोई भी साधारण व्यक्ति उसके अतिरिक्त कुछ और सोच ही नहीं सकता था। पर वीणा नाम के अनुरूप थी जैसे सरस्वती की संगिनी। शुरू से विद्यालय जाने और पढ़ने में उसकी गहरी रूचि थी। लेकिन कभी उसे विद्यालय जाने का सौभाग्य नहीं मिल पाया। बड़ी बहन माँ के साथ काम पर जातीं ।उनके पीछे छोटे भाई को संभालना, उसे नहलाना, खाना बनाना, खिलाना इत्यादि सारी ज़िम्मेदारी वीणा पर ही होती थी। पास के सरकारी विद्यालय में पढ़ने वाली कुछ लड़कियों से जरूर वीणा ने दोस्ती कर ली थी उनके साथ रहते रहते थोड़ा बहुत अक्षर ज्ञान और नैतिक ज्ञान वीणा को होने लगा था। समय का पहिया अपनी रफ़्तार से आगे बढ़ रहा था। जैसे-तैसे माँ ने दान दहेज इकट्ठा कर वीणा की बड़ी बहन को ब्याहा। दहेज़ के अभाव में वीणा का रिश्ता कहीं हो नहीं रहा था तो माँ ने पहले भाई का घर बसा अपनी जिमेदारी का एक और पड़ाव पार करने की सोची। भाई-भाभी कुछ दिन साथ रहे फ़िर अलग घर बसाकर रहने लगे। अब घर में बस दोनों माँ बेटी रह गईं। एक दिन किसी रिश्तेदार के सुझाए रिश्ते को स्वीकार कर, अपनी अंतिम ज़िम्मेदारी से मुक्त होने के उद्देश्य से माँ ने वीणा के हाथ भी पीले कर दिये। लड़के के परिवार में कुछ दूर के रिश्तेदारों के अलावा कोई नहीं थाऔर सब से बड़ी बात दहेज की कोई माँग न थी। वीणा और उसकी माँ के लिये इससे बेहतर रिश्ता तो हो ही नहीं सकता था। पर कहते हैं न कि किस्मत में गम लिखे हों तो वजह बन ही जाती है। अपने घर में लाख परिस्थिति खराब थी, मगर सुख से दो निवाले तो खाती थी वीणा। यहाँ तो पति निकम्मा ऊपर से घोर व्यसनी। शराब पीकर आना और और बात-बेबात वीणा को मारना उसका नित नियम बन चुका था। शाम होते ही वीणा की निर्मम चीखें पूरे मोहल्ले में गूंजने लगतीं। लेकिन कोई उन्हें सुनने, समझने, रोकने या सांत्वना देने वाला न होता। सिर्फ 3 महीने हुए थे वीणा की शादी को और इस बीच उसका एकमात्र सहारा उसकी माँ भी स्वर्ग सिधार चुकी थीं इन सब घटनाओं और पति के अमानवीय व्यवहार से वह मानसिक और शारीरिक रूप से पूरी तरह टूट चुकी थी। कुछ दिन ये सब सहन करते हुए वह घर में बेजान बुत सी पड़ी रही।आख़िरकार उसकी चेतना जागी, उसने निश्चय किया कि वह ईश्वर का दिया ये अनमोल जीवन ऐसे व्यर्थ नहीं करेगी।

घर में खाने के लाले पड़े हुए थे पर पति को इससे कोई सरोकार न था। वीणा ने जीवन को एक और मौका देते हुए गृहस्थी की डोर थामने के उद्देश्य से पास के स्कूल जाकर काम माँगा, सौभाग्य से काम मिल भी गया। ये वही स्कूल था जहाँ आज राजन्शी पढ़ती है। इसी तरह बैठकर घन्टी इन्तज़ार किया करती थी वीणा जैसे आज राजन्शी को स्कूल से लेने जाने पर वहां बैठकर कर रही थी। हर पीरियड के बाद टीचर्स के लिये पानी लेकर जाना, लन्च ब्रेक मे सबके लिये चाय बनाना, स्कूल शुरु होने के पहले और बाद में टेबल कुर्सियों की साफ़-सफ़ाई इत्यादि उसके कार्यों मे शामिल था। जिसे वह बड़ी लगन से किया करती थी। भले ही वीणा कभी स्कूल नहीं गई थी पर सीखने की लगन खूब थी उसमें। ईमानदार, समय की पाबन्द, सीखने की बाल सुलभ ललक से भरपूर, विनम्र और हंसमुख स्वभाव की वीणा, जल्द ही सबकी चहेती बन गई । कुछ शिक्षिकाएँ भी उसके पढ़ाई के प्रति रुझान ,सीखने की तीव्र गति को देख फ़्री पीरियड मे अक्षर ज्ञान दे दिया करतीं। इन लोगो के प्यार के बीच वह अपने ग़म भूल जाती। दिनभर उसका सबके साथ खुशी से बीतता पर शाम होते-होते उसके चेहरे पर स्वतः चिन्ता की लकीरें उभर आतीं ।धीरे-धीरे उसका जीवन सुधरने लगा था, पर कुछ न बदला था तो वह था उसका दुर्व्यसनी पति और वीणा के प्रति उसका व्यवहार। उसने भरसक प्रयास किया। अपने प्रेम समर्पण समझाइश और कभी कभी हल्की फटकार से पति को सही राह पर लाने का मगर सुरेश में लेशमात्र भी परिवर्तन नहीं आया। अब वीणा कमाने लगी थी तो वह उसे पैसों के लिए भी परेशान करने लगा। स्कूल में रहते हुए दिनभर वो खुश रहती पर घर पहुँच कर उसके साथ बीतने वाली अनहोनी की आशंका मे भय से उसकी रुह काँप उठती। कैसे सामना करेगी उस वहशी का? जो शराब के नशे मे आव देखता ताव जो हाथ में आजाये उसी से मारना शुरु कर देता। रोज़ शाम होते वो इसी सोच में डूब जाती। 
स्कूल की सभी टीचर्स अच्छी थीं। पर वीणा के मुस्कुराते चेहरे के पीछे के गहरे ग़म के घावों के बारे में कोई नहीं जानता था। किसी को उसने कभी अपनी घरेलू समस्याओं और अपने संघर्षों से अवगत नहीं कराया। 
पर स्कूल में अध्यापिका राजश्री जी थीं जो उसके अन्तर्मन मे उठने वाली मनोभावों की हलचल को उसके
चेहरे पर अक्सर पढ़ ही लिया करती थीं और गाहेबगाहे टोक ही देतीं -


"क्या हुआ है?" 
"क्या सोच रही हो?" 
"उदास क्यों हो" 
"चिन्ता मे क्यूँ दिख रही हो?"
"घर मे सब ठीक तो है?"
हमेशा ही वीणा उनके सवालों को टाल दिया करती थी। पर उस दिन राजश्री जी स्कूल के बाद भी स्टाफ़ रूम में बैठकर कॉपियां चैक करने मे व्यस्त थीं .घड़ी 6 बजा रही थी.

वीणा स्टाफ़ रूम में आई तो राजश्री जी बिना नज़र उठाए सहज ही पूछ बैठीं "तुम घर नही गई अब तक ?" "स्टाफ़ रूम की सफ़ाई बाकी है मेडम जी, बस खत्म कर के जा ही रही हूँ ।"
इतना कहकर वह सफ़ाई में और राजश्री जी अपने काम मे तल्लीन हो गई . वीणा अपनी प्रकृति के विपरीत धीरे धीरे सफ़ाई करती रही। सफ़ाई खत्म करने के पश्चात् वह राजश्री जी को कॉपियां खोल कर देने लगी.

"ये तुम्हारा काम नहीं है वीणा, तुम जाओ वरना तुम्हे देर हो जाएगी।" राजश्री ने हिदायत दी। 
"कोई बात नहीं मेडम जी आप चिन्ता न करे मैं समय से चली जाऊंगी।" वीणा ने कहा।

इस बार राजश्री ने नज़र उठा कर देखा तो वीणा के चेहरे पर चिन्ता साफ़ झलक रही थी। राजश्री जी को वह काफी परेशान दिखी उनसे रहा न गया और वे फ़िर पूछ बैठीं - "आखिर माजरा क्या है वीणा, जब से तुम ने यहाँ काम शुरु किया है, मैं देख रही हूँ सुबह जब तुम स्कूल आती हो तुम खिली-खिली दिखाई देती हो, शाम होते ही घर जाने के नाम से क्यों तुम्हारे मस्तक पर सलवटें दिखाई देने लग जाती हैं? क्यूँ इतनी चिन्ता मे पड़ जाती हो? कोई समस्या है, तो बताओ।"

लगभग 5 मिनिट वीणा उनके सही अनुमान को नकारने का प्रयास करती रही।

बहुत ना नुकुर के बाद जब राजश्री ने कहा

"देखो वीणा दुनिया में कोई समस्या इतनी गम्भीर नहीं होती कि जिसका हल न निकाला जा सकता हो लेकिन यदि तुम चुप्पी ही धारण कर लोगी तो मदद मिलेगी कैसे? और आखिर ये विद्यालय भी तो तुम्हारा परिवार है,मुसीबत में परिवार की सहायता न ली तो किससे लोगी?"

इतना सुनना था कि वीणा की रुलाई फूट पडी सभी भावनाएँ अश्रु रूप मे बहने लगीं।आज तक किसी ने उससे कभी इस तरह सहानुभूति से बात न की थी। राजश्री ने उसकी पीठ सहलाकर सान्त्वना देते हुए पानी का गिलास थमाया। उसकी अवस्था स्थिर होने का इन्तज़ार किया और पूछा-

"बताओ क्या बात है पति से कोई झगडा हुआ क्या?"
धीरे धीरे वीणा ने अपनी पूरी कहानी राजश्री जी के सामने सुना दी। पति किस तरह रोज उसे पीटता है, धमकाता है, सुःख चैन सब छीन रखा है।

"मेडम जी शाम होते ही जी घबराने लगता है बस यही सोचती रहती हूँ कि आज क्या क्या झेलना होगा घर जाकर। जैसे तैसे मन मारकर घर जाती हूँ। 

लेकिन इतना सब कुछ सहन करती ही क्यों हो?

तो क्या करू मेडम जी?

यदि उसे तुम्हारी क़द्र नही तो छोड़ दो।

नहीं-नहीं मेडम जी लोग क्या कहेंगे? वह घबराते हुए बोली। 

कौन से लोगो के बारे मे सोच रही हो वीणा? जिन्हें ये जानकारी रखने से भी परहेज़ है कि तु्म किस हाल मे हो?

लेकिन समाज और परिवार वाले खुश नहीं होंगे  मेरे ऎसा कदम उठाने पर।

तुम गई थीं न उनके पास अपनी समस्या लेकर? अनुभवी राजश्री ने निर्णायक स्वर मे पूछा। 

जवाब वही मिला जो वे पहले से जानतीं थीं

"जी" नज़रें झुकाती हुई वीणा बोली

फ़िर? राजश्री जी ने उसकी और देखते हुए पूछा। 

फ़िर क्या बहन अपने परिवार मे सुखी है, उसने मुझसे इतना जरूर कहा कभी भी कोई जरुरत हो तो बताना कोशिश करुँगी तेरी मदद कर पाऊं लेकिन पति के साथ निबाह के लिए सामंजस्य तो तुझे ही बिठाना होगा।हमने तो बचपन से दुःख और संघर्ष देखा है, अब तो तुझे इसकी आदत हो जानी चाहिए और वीणा हमारे जैसे गरीब लोगों की यही ज़िंदगी होती है। इससे अच्छे की तो हम सिर्फ कभी न पूरी होने वाली आशा ही कर सकते हैं।

भाई भाभी ही जीवन मे खुश हैं। किराए के कमरे में रहते हैं। भाई कहता है तुझे कहाँ रखूँगा जैसे भी हो निबाह कर ले वहीं। हो सकता है तेरे प्रयासों से जीजाजी बदल जाएँ वैसे भी लडकी का असली घर तो उसका ससुराल ही होता है। 

एक माँ थीं जो शायद मेरा दुःख समझतीं वे अब रही नहीं। कभी-कभी तो लगता है कि वे होतीं तब भी वे भी शायद मुझे ही समजझाइश देतीं।

तो तुम तैयार हो पुरी ज़िन्दगी ऎसे घुट-घुट कर जीने के लिये?

नहीं मैडम जी, लेकिन छोड़ कैसे दूँ? समाज क्या कहेगा मुझे? भाई-बहन परिवार सबको ताने देंगे लोग। असमंजस के भाव लिए वीणा बोली। 

कौन से समाज की परवाह है वीणा तुम्हें? वही समाज जो कभी तुम्हारे काम न आया? कोई एक व्यक्ति भी मुझे बता दो 
जो तुम्हे एक दिन भी पति की मार से बचाने आया हो?

ये तो मैने भी कई बार सोचा मेडम जी मगर हिम्मत नहीं होती। आख़िर नाम के लिए ही सही, पति तो है उसका साया सिर से हट गया तो..  कहते कहते वीणा चुप हो गई। 

राजश्री एक फीकी हंसी लाते हुए अफ़सोस से अपनी गर्दन हिलाते हुए 1 सेकंड के लिए चुप हो गई फिर बोली। 

हम्म्म तो ये बात है। अच्छा एक बात बताओ किस पति का नाम अपने साथ जोड़े रखना चाहती हो जिसको पत्नी शब्द के मायने भी नहीं पता? वीणा ने अश्रुपूरित नज़रों से राजश्री जी की और देखा। 

वीणा, तुम जानती हो पति-पत्नी का अर्थ क्या होता है?मेरी नज़र में पति-पत्नी एक दूसरे के जीवन सारथि होते हैं। कभी जीवन रथ का सारथि पति बनता है तो कभी पत्नी और कभी दोनों ही मिलकर जीवन रथ को आगे बढ़ाते हैं। इस सफर में कभी पथरीली डगर भी आती है और कभी रास्ते में फूल बिछे भी मिल सकते हैं। जब जीवन संघर्षों का सामना एक दूसरे के प्रेम रूपी साथ से वे दोनों मिलकर करते हैं तब जीवन बोझ नहीं लगता। वीणा, शादी सिर्फ इसलिए नहीं की जाती या निभाई जाती कि ये एक सामाजिक व्यवस्था है और न ही इसलिए कि पति रूपी सुरक्षा कवच पहन कर जीवन में आने वाली कठिनाइयों और असामाजिक तत्वों की बुरी नज़रो के घायल कर जाने वाले तीरों से खुद को इस कवच के सहारे बचाया जा सके। शादी में प्रेम, एकदूसरे के प्रति समर्पण और सम्मान का भाव् होता है, जो दोनों और से होना जरुरी है। और जिस पति के नाम को तुम सुरक्षा कवच समझ के धारण करके बैठी हो उसी के साथ तो तुम सबसे ज्यादा असुरक्षित हो। जिसे खुद तुम्हारे मान सम्मान से सरोकार न हो वो किसी से तुम्हें क्या सुरक्षित रख पाएगा?


वीणा एकटक मंत्रमुग्ध सी राजश्री को सुनती रही उनकी बातें उसे सही लग रही थी वह स्वयं भी कई बार यही सब सोचा करती थी। पर मन के किसी कोने में बचपन से घर कर चुका समाज का बनाया हुआ डर कि अकेली औरत का समाज में जीना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है अब भी उसे रोक रहा था। 

मन में इसी उधेड़बुन में उलझी मगर बाहर से शांत बैठी वीणा की सोच की लड़ी फिर राजश्री जी ने तोड़ी। 

और ये सब मैं त्वरित निर्णय के आधार पर नही कह रही हूँ वीणा। तुम्हें शायद लगता है कि तुम किसी को नहीं बताओगी तो किसी को कुछ पता नहीं चलेगा। मैं पहले दिन से समझ रही हूँ सबकुछ। तुम्हारे हाथों पर कई मर्तबा मैंने उन घावों को सिर्फ देखा नहीं महसूस किया है जो ऊपर से तो भर जाते हैं पर तुम्हारे मन को छलनी करके बैठे हैं। इसीलिए बार बार कोशिश करती  थी कि तुम अपने मन का दर्द बाँटो। ये सुन वीणा आश्चर्य से भर गई।

एक बात मुझे बताओ क्या तुमने उसे बदलने का उसकी ये बुरी लत छुडाने का कभी कोई प्रयत्न नही किया? राजश्री जी ने फिर एक प्रश्न किया। 
मैंने क्या जतन नहीं किए सब कुछ कर के देख लिया लगता ही नहीं कि वो ये लत छोड़ पाएगा। 
और जानती हो तुम्हें क्यों ऎसा लगता है? क्योंकि वह ये लत छोडना ही नहीं चाहता है। 
उसे तुमसे ज्यादा शराब से प्रेम है तुमसे ज्यादा शराब की लत है। वह जीवन में अपनी प्राथमिकता उसी को तय कर चुका है। अब तुम्हारी बारी है वीणा। तुम्हारे जीवन की प्राथमिकता तुम्हारे जीवन का लक्ष्य तुम्हें खुद तय करना होगा। 

तुमने निर्णय लिया है तो बिलकुल सोच समझ कर लिया होगा। मैं ये नहीं कह रही कि अपने पति से अलग हो जाना ही तुम्हारी समस्याओं का एकमात्र हल है। लेकिन मैं साथ में ये भी कहना चाहती हूँ कि सिर्फ़ उम्रभर उसे सुधारते रहने का प्रयास करते रहना ही इस जीवन का लक्ष्य मत बना लेना वीणा। तुम उसे मौका देना चाहती हो दो लेकिन कोई पड़ाव निर्धारित करो और फिर जी जान से जुट जाओ जो चाहती हो वो हासिल करने में। लेकिन उस निर्धारित समय सीमा के बाद भी उसमें बदलाव ना आए तो अपने जीवन को इस तरह व्यर्थ मत करो। इस पर एक विचार करके देखना, बाकी फैसला तुम्हारा जो भी हो मैं हमेशा ही तुम्हारे साथ रहूँगी। इतना अपनापन पाकर वीणा का दिल भर आया। आँखों से आँसु बह निकले..

टन टन टन.. स्कूल सबके लिए बंद होने की आखरी घंटी के साथ राजश्री जी उठ खड़ी हुईं वीणा के कानो में घंटी के आवाज़ अब भी गूँज रही थी..

मम्मी मम्मी भूख लगी भूख लगी भाई खाना दो खाना दो की आवाज़ कानों में पड़ते ही वीणा वर्तमान में आई दरसल ये घंटी घंटी नहीं राजन्शी के प्लेट चम्मच बजाने की आवाज़ थी।

कहानी जारी है.... पढ़ने के लिए अगले भाग का इंतज़ार करें।आपके समीक्षा रुपी सुझावों की प्रतीक्षा में

कहानी का अगला भाग पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें जीवन सारथि भाग 2


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