जीवन सारथि भाग 13 (अंतिम)

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राजश्री और शालिनी घर पहुंचते हैं और थोड़ी दूरी पर वह गाड़ी भी उन्हें रुकता देख दूर से वापस पलट जाती है। घर पर अंधेरा होता है।
लाइट्स को क्या हुआ? राजश्री सवाल करती है।

मैं देखती हूँ दीदी कहकर शालिनी डोरबेल बजाती है, और हाथ पकड़ राजश्री को भी दरवाज़े तक ले आती है। दरवाज़ा खुलते ही अचानक ढेर सारी रोशनी की जगमगाहट के साथ राजश्री पर फूलों की बरसात होने लगती है। वह एकदम आश्चर्यचकित और भाव विभोर हो जाती है। घर के अंदर संस्था के 8-10 सदस्यों के अलावा विभा, रक्षा, वीणा, राजन्शी, रानी, ऋषभ, रितेश, श्रीधर,  वे बुज़ुर्ग दंपति,  शिवि, आशा और डॉ राजेश भी खड़े थे। सब को साथ देख उसके आश्चर्य और खुशी का ठिकाना नहीं था। विस्मित सी वह सबके चहेरे ही देख रही थी। उतने में शिवि  दौड़कर उससे लिपट गई! राजन्शी और ऋषभ कहाँ पीछे रहने वाले थे "मेरी मौसी", "मेरी मौसी है" कहकर वे भी राजश्री से लिपटने लगे। शालिनी ने बच्चों को समझाकर दूर किया कि मौसी की तबियत ठीक नहीं है। उन्हें वीकनेस है अभी। शिवि का चेहरा निहारते निहारते राजश्री की आँखें भर आती हैं। सब उसे पकड़ कर अंदर ले आते हैं। वेलकम गीत गाते हुए उसे अंदर बिठाते हैं। एक बड़ा सा केक उसके सामने रखा जाता है। राजश्री केक कट करती है।  वह सब से मिल आनंदित हो जाती है। ये दृश्य सबकी आंखे गीली कर रहा था। यहाँ कोई रिश्ता बंधन या मजबूरी नहीं था। सब एक दूसरे से दिल से जुड़े हुए थे। सबने छत पर बैठ साथ खाना खाया। फिर सभी नीचे हॉल में आ गए।
कितनी बड़ी हो गई शिवि! किसी की नज़र न लगे। राजश्री कहती है। 
शिवि, ऋषभ, राजन्शी उसके बिल्कुल पास बैठ जाते हैं। सबके आने से महफ़िल सी जम जाती है। राजश्री के लिए माहौल एकदम खुशनुमा हो जाता है। बातें करते जब काफी वक्त हो जाता है तब शालिनी अब राजश्री को दवाई दे आराम करने के लिए कहती है।
बाकी लोग भी कुछ देर बातें कर, कुछ हॉल में कुछ कमरों में सो जाते हैं। श्रीधर रितेश और डॉक्टर राजेश, राजश्री से कल शाम आने का कह कर वापस चले जाते हैं।
दूसरे दिन राजश्री उठती है तब तक घर का माहौल एकदम बदल चुका होता है। कल रोशनी में जगमगा रहे घर की लाइट्स आज हटा दी गई हैं उनकी जगह आज पूरा घर सफेद और पीले फूलों से सादगी सा सज चुका होता है। हॉल में टेबल पर कईं तरफ़ के गिफ्ट्स रखे होते हैं। पूरा दिन घर मे रौनक होती है। सभी को साथ देख राजश्री बेहद खुश होती है।
तरह तरह के खाने की खुशबुओं से घर महक रहा है। राजन्शी और ऋषभ की शरारतें मीठी बातों और धमाचौकड़ी इस महफ़िल में चार चांद लगा रही थी। सब अलग जगह के, अलग अलग जाति के लोग एक ही छत के नीचे एक  परिवार की तरह इकट्ठे हुए थे । कुछ बातें कर रहै थे।कोई सजावट ठीक कर रहा था, कुछ किचन का हाल देख रहे थे।
इस बीच श्रीधर और रितेश लगभग साथ ही आते हैं। उसके कुछ समय बाद डॉक्टर राजेश भी सफेद ट्यूलिप का एक बुके लिए आते हैं और राजश्री को देते हैं।
राजश्री हल्की मुस्कान के साथ वो फूल ले लेती है।

"शुक्र है आज तो लिए।"
मुस्कुराकर कह, वे आगे बढ़ सबके साथ शामिल हो जाते हैं।
शाम को सबने मिलकर अंताक्षरी खेलने का प्रोग्राम बनाया हुआ था। खाना खाने के बाद सब एकसाथ मिलकर बाहर वाले हॉल में राजश्री के आसपास बैठ जाते हैं। और मिलकर अंताक्षरी खेलने लगते हैं। सब बेहद उत्साहित थे और आज राजश्री के दिन को पूरी तरह से खुशनुमा बना देना चाहते थे।

कल गाड़ी का पीछा करती कार आज राजश्री के घर से थोड़ी दूर पर फिर आकर रुकी। एक शख्स पैदल उसके घर के सामने पहुँचता है जहाँ उसे लोगों की भीड़ हँसती गाती झूमती दिखाई दे रही है ये शख्स विनोद है।

थोड़ा और पास जाने पर उसे भीड़ के बीच बेड पर, तकिए का सहारा लेकर बैठी राजश्री मुस्कुराती और दिल से खुश नजर आ रही होती है ।मानों उसकी मुस्कुराहट आज विनोद के उस दिन के सवाल के जवाब में कह रही हो देखो विनोद में अकेली नही। अकेले तुम हो। मेरे पास बहुत बड़ा परिवार है जो मेरी खुशियों का ख्याल रखता है। वह हैरान रह गया जब उसने आशा को भी उस भीड़ में देखा। उसका मन किया एक बार अंदर जाने का पर वह किस मुँह से जाता? अपना सा मुँह लिए लौट गया वापस।

इधर अंताक्षरी अपने अंतिम पड़ाव पर थी 'र' अक्षर से आखरी गीत किसी को सूझ नहीं रहा होता तब राजश्री गाती है -
"रोते हुए आते हैं सब हंसता हुआ जो जाएगा, वो मुकद्दर का सिकंदर वो मुकद्दर का सिकन्दर,  जानेssमन्न्न..........कहलायेगाssss...  राजश्री से ये "गीत सुनते हुए  लगभग सबका मन भर आया था। मगर आज सब प्रण करके आये हैं, आज कोई रोयेगा नहीं सिर्फ और सिर्फ मुस्कान रखेगा चेहरे पर।यही सोच  खुद को जब्त कर  सजल नेत्रों पर मुस्कान लिए  सब राजश्री के साथ एक स्वर में गा रहे होते हैं। अंताक्षरी खत्म होते ही सब ज़ोर शोर से खूब तालियाँ बजाकर हूटिंग करते हैं।
राजश्री सबसे कहती है यह दिन आप सबने मेरे लिए यादगार बना दिया बहुत अच्छी यादें साथ ले जाऊंगी मैं इतना प्रेम पाकर प्रफुल्लित हो गई हूँ। लग रहा है जैसे जीवन सफल हो गया। 
दूसरे दिन सभी राजश्री को ख्याल रखने की हिदायत दे वापस चले गए  आशा और शिवि रुकना चाहते थे मगर राजश्री ने कहा कि बाद में मुझे आप दोनों की बेहद ज़रूरत होगी तब भी आपको यहां रुकना होगा। अभी शिवि के प्रोजेक्ट्स का हर्ज़ाना होगा। इसलिए आप अभी वापस चले जाइये। बेमन से वे दोनों लौट जाते हैं।
समय बीत रहा है 8 महीने पूरे हो चुके हैं।
डॉक्टर्स हैरान हैं। राजेश सहित सभी लोगों का भरोसा है कि ये राजश्री के किये अच्छे कर्मों के फलस्वरूप उसे रोज़ मिल रही दुआओं का असर है कि वह अब तक कम से कम परेशानियों के साथ अपने  तय समय से अधिक समय तक इस बीमारी से लड़ने में सक्षम रही है। सब चाहते हैं कि राजश्री को कभी कुछ न हो।
इस बीच याचिका की सुनवाई होती है और फैसला याचिका के पक्ष में आता है। श्रीधर केक के साथ यह खुशखबरी लेकर आता है और सब मिलकर राजश्री का एक ख्वाब पूरा होने का जश्न मनाते हैं।
दिन बीतते हैं और 10 महीने अब पूरे हो चुके हैं। मगर अब राजश्री की हालत बिगड़ती जा रही है। वह शिवि और आशा को अपने पास बुलाती है। शिवि उसकी खूब सेवा करती है कई बार राजश्री बातें करते हुए भूल जाती हैं कि वह क्या कह रही थी। मगर अपने संस्था के पंजीयन का सपना कभी नही भूलती।अपने बेड के पास नोटपैड पर यह बात उसने लिख रखी है कि संस्था का पंजीयन होना बाकी है। बिना सहारे के अब उसका उठना बैठना मुश्किल होता है। खाना न के बराबर हो चुका होता है।
इस बीच वीणा उसे फ़ोन पर यह खुशखबरी सुनाती है कि संस्था का पंजीकरण हो गया है। बस सर्टिफिकेट की हार्ड कॉपी मिलना बाकी है जो शायद कल तक मिल जाये। राजश्री अब वीणा से कहती है - रक्षा को वहाँ का ज़िम्मा सौंप  अब यहाँ आ जाओ। ज्यादा दिन अब मेरे पास नहीं बचे हैं।
वीणा के साथ संस्था के 5- 6 लोग भी आजाते हैं।
सब लोग राजश्री के पास बैठे हैं।
वीणा उसके पास बैठी ढाँढस बंधा रही है कि आपको कुछ नहीं होगा।
क्यूँ मुझे क्या अमर जड़ी खिलाकर भेजा है भगवान ने.?
सबको देख ये कहते हुए राजश्री की आंखे गीली सी हो गई। सब उसे ही देख रहे थे और सबकी आँखों से अश्रुधाराएँ बह रही थीं।

"तुम सबको इतनी जल्दी छोड़ कर जाने का मन तो नहीं है।
लेकिन जाना तो है ही" कहते हुए उसका गला अब रुंध सा गया । शब्द कंठ में अटक गए। 
वीणा और शालिनी उसके गले लग रो पड़ीं।
सुनो मुझे मुखाग्नि राजन्शी, शिवि और ऋषभ के हाथ से... ही... दिलवाना... विनोद का कोई हक नही। वीना तुम्हें ये वादा करना है मुझसे... (रुक रुक्कर बमुश्किल एक एक शब्द  उसके गले से निकल रहा था) कहते हुए  बेहद तकलीफ के साथ राजश्री हाथ बढ़ाती है।
वीना उसके हाथ पर हाथ रख देती है। इतने में रक्षा का वीडियो कॉल आता है जिस पर वह संस्था के पंजीकरण की हार्ड कॉपी दिखाती है। सर्टिफिकेट  पर संस्था का नाम लिखा है

"जीवन सारथि"

देखते ही  देखते सुकून से राजश्री की आँखे बंद हो जाती है सांसे रुक जाती हैं और शरीर शिथिल पड़ जाता है।

राजश्री के सामने बैठे सभी रो रहे हैं वीणा का रो रो कर बुरा  हाल था। उसके मन मे तूफान चल रहा था वह सोच रही थी
सब मेरी गलती है मैं अपने जीवन में इतनी कैसे खो गई आखिर मेरे जीवन को नई दिशा देने वाली इतनी तकलीफ में अपना जीवन गुजार रही थी और... शर्म आती है मुझे खुद....

शालिनी मन ही मन खुद को दोष दे रही थी। दीदी के साथ रहते भी मैं उनका ख्याल न रख पाए उनको बचा न पाई।

यहाँ कोई दिखावा नहीं था ये सब मन से दुखी थे इनकी संवेदनाएँ जीवित थी। सब बहुत कोशिश करके मौन धारण कर बैठे थे लेकिन उनके अंदर की भावनाएँ मौन नहीं रख पा रही
थी। थोड़ी-थोड़ी देर  में रुलाई फूट फूट कर क्रन्दन में बदली जा रही थी। पर इस दुख के साथ इनमे से अधिकतर लोगों के मन मे संवेदनाओं की पाती के साथ एक प्रण भी था। जो हर किसी ने यहाँ किसी न किसी तरह राजश्री जैसी विभूति को उसके गुणों के ज़रिए खुद में जीवित रखने और उसके कामों को आगे बढ़ने के लिए सोच रखा था।
मानव जीवन की मासूमियत और सच्चाई जो दम तोड़ चुकी है इस दृश्य में अब भी दिखाई दे रही थी। भले राजश्री कम साँसे लिखवा कर लाई थी। पर उसकी अंतिम सांस सुकून और संतुष्टि से भरी थी।
राजश्री के अंतिम संस्कार में सैकड़ों लोगों का हुजूम था। यह भीड़  विनोद को अपने चेहरे पर थप्पड़ की तरह प्रतीत हो रही थी। उसे अब समझ आया कि राजश्री के सबसे करीब होकर भी वह उससे कितना दूर रह गया और ये सब लोग  उससे दूर होकर भी उसके जीवन का अभिन्न हिस्सा थे भावनाओं की कीमत उसे अब महसूस हो रही थी जब काफी देर हो चुकी थी।  राजश्री अपनी सम्पूर्ण सम्पति संस्था के हित के लिए दान कर चिरनिद्रा में लीन हो चुकी थी।

उसके जाने के बाद वीणा और शालिनी ने कैंसर पेशंट के लिए भी काम करना और उसके बारे में जागरूकता फैलाना शुरू कर दिया था।  छोटी छोटी बातें जो उन्हें हर्ट करती हैं और जिन्हें लोग बिना सोचे समझे व्यवहार में शामिल कर लेते हैं, उन्हें  आम लोगों को बताकर वे दोनों उनकी संवेदनाएँ जीवित रखने का प्रयास करती।

कुछ सालों बाद शिवि और राजन्शी ने एक अनोखा  और निःशुल्क स्कूल खोला। जहाँ वे बचपन से बच्चों में मानवीय संवेदनाओं के बीज बोती बच्चों  झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले , अपाहिजों और पीड़ित लोगों के पास ले जा उनके दर्द का एहसास बच्चों में जगाती। 
एक संवेदनशील समाज की स्थापना में जो हो सकता था वह राजश्री के स्थापित साम्राज्य के सभी लोग मिल कर, अपने अपने स्तर पर कर थे। आज राजश्री की पांचवी पुण्य तिथि पर उसके नोटपैड पर अंतिम समय मे अंकित पंक्तियाँ उसकी संस्था के बोर्ड पर उसकी मुस्कुराती तस्वीर के साथ चमक रही थी-

"जब किसी कारणवश किसी स्त्री के जीवन रथ का सारथि डगमगाने  लगे, साथ छोड़ने लगे तो अपना जीवन साथी हम यहाँ एक दूजे में ढूँढ लें। जीवन सिर्फ पुरुष  "जीवनसाथी"  के साथ नहीं किसी सच्चे "जीवन सारथि" के साथ में है।"

अंत में- राजश्री को  अश्रुपूरित श्रद्धांजलि🙏
श्रद्धांजलि सिर्फ उसे ही दीजियेगा क्योंकि श्रद्धांजलि देकर सिर्फ भूल जाया जाता है। उसकी भावनाओ, संवेदनाओं को हो  सके तो अपनी आत्मा में जगह दे दीजिएगा, ताकि किसी का जीवन मुस्कुरा सके आपकी वजह से।
समाप्त।


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