जीवन सारथि भाग 11




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जीवन सारथि भाग 1

मगर हुआ वही जिसकी आशंका थी। मैने  एक पल के लिए सोचा था शायद छोटी बच्ची के लिए तो उसके मन मे कुछ कोमल भाव होंगे मगर बच्ची को देखते ही वह भड़क गया। ये मेरे घर मे नहीं रहेगी। उसने इतनी आसानी उसमे और बच्ची में से एक को चुनने को कह दिया। क्या उसके रिश्ते की तुलना किसी और रिश्ते के साथ कि जा सकती थी? वह सब कुछ था उस वक़्त तक मेरे लिए लेकिन उसकी इस बेतुकी तुलना ने मेरा मन ही खिन्न कर दिया। मेरे समझाने पर भी उसने साफ शब्दों में उस लड़की को उसी वक़्त अनाथाश्रम में भेजने का आदेश ही सुना दिया था। मैंने भी उसकी बात शिरोधार्य कर उसे को आश्रम ले जाने का निर्णय कर लिया था। लोकल पुलिस से विनोद की पहचान होने से उन्होंने बिना ज्यादा पूछताछ किये , एक अनाथाश्रम में उसका दाखिल सुनिश्चित कर दिया था। मैं जब उसे वहाँ ले गई तो 7- 8 साल की उस छोटी सी बच्ची ने कस कर मेरा हाथ पकड़ लिया और अंदर  जाने से मना कर दिया। मुझसे लिपट कर वो ज़ार ज़ार रोने लगी। मेरे पास कोई रास्ता नहीं था । मैं उसे ऐसे रोता नहीं देख पाई और फिर घर आ गई।  विनोद ने बहुत तमाशा किया। बिफर पड़ा-  "इतनी मुश्किल से हल निकाला और तुम फिर इसे ले आई? देखो मुझे ये लड़की मेरे घर मे बिल्कुल नहीं चाहिए। शालिनी, उसका बार बार ये "मेरा घर", "मेरा घर"  कहना मेरे कानों पर बार बार हथौड़े सा पड़ता था…। क्या ये हम लड़कियों की गलती है जो समाज ने शादी के बाद हमे पति के घर रहने भेजने का रिवाज बनाया है? जिस घर मे हम बचपन से रहते हैं एकाएक ही उससे नाता तोड़ लेना वैसे ही कितना पीड़ादायक होता है। फिर भी हम कितनी आत्मीयता से नए घर में अपना मन रमा उसे अपना घर समझ ज़िन्दगी के सपने संजोने लगते हैं। ऐसे में जब जब वो ये शब्द कहता तो मुझे लगता मैं बस इसी वक्त इस घर से निकल जाऊँ। लेकिन परिवार समाज सबका सोच, फिर में खुद को समझाती शायद वो गुस्से में ये कहता है। पर आखिर  वो उसका घर था तो उसी का इसलिए मुझे कहना पड़ा,
मैं कुछ सोचूंगी सुबह फिलहाल ये बहुत डरी हुई है। आज रहने दो यही।

रात 2:00 बजे तक उसे नींद नहीं आई थी।
अब क्या बेडरूम में ही सुलाओगी इसे? जाओ मां के पास सुला आओ। बेहद गुस्से से वह बोला।
मुझे लगा इनका गुस्सा शायद बच्ची के कारण हमारी निजता खत्म हो जाने के डर के कारण से भी है। उस वक़्त मैं हर तरह से उसकी मानसिक स्थिति को समझ उसका साथ दे उसमे भावनाओं का संचार करना चाहती थी क्योंकि तुम खुद जानती हो मैं हर एक को  एक मौका हमेशा देने की पक्षधर रही हूँ।
मैं उसकी भावनाओं की कद्र करते हुए शिवि को माँ के पास सुलाकर आई, तब तक  विनोद भी सो चुका था। मुझे बड़ा अचंभा हुआ।  मैं भी सो गई।
और सुबह वह लड़की घर मे  कहीं नहीं थी। पूछने पर  विनोद ने बड़ी आसानी से कह दिया कि वह उसे छोड़ आया है। अब मेरे सब्र की सीमा का अंत हो चुका था शालिनी। वो उसे ऐसे ही रात के अंधेरे में कहीं छोड़ आया है!? ये सोचकर ही मेरे  दिल में एक गहरी टीस सी उठी! मुझे इतना गुस्सा आया जितना शायद जीवन मे उसके पहले कभी नही आया था। उसे कुछ कहने के लिए मुझे शब्द नहीं मिले। मैंने तुरन्त बाहर निकल उस पूरा दिन आसपास उसे बहुत ढूंढा मगर वो कहीं नहीं मिली शालिनी। मैं वापस आई मगर एक फैसले के साथ  कि अब इस असंवेदनशील व्यक्ति के साथ और समय नहीं गुजार पाऊँगी। जिसे किसी लड़की के जीवन से वह भी किसी छोटी सी बच्ची के जीवन से कोई लेना-देना नहीं था। उसके साथ कोई अनहोनी न हो बस मैं भगवान को मनाती रही और अपना कुछ सामान पैक कर लिया। विनोद मुझे जाने नहीं देना चाहता था लेकिन मुझे रोकने की उसकी दलीलों में कहीं उसके  किये पर लेशमात्र भी पछतावा नहीं झलक रहा था। वह तो इसे गलती मानना ही नही चाहता था।  उसने मुझे  रोकने और बरगलाने की बहुत कोशिश की।

कहने लगा दूसरों के लिए अपनी जिंदगी बर्बाद मत करो। अच्छी खासी जिंदगी मिली है।

उस दिन मेरा गुस्सा फूट पड़ा था मैने उसे बता दिया जिसे  तुम अच्छी जिंदगी कहते हो मैं उसे ज़िन्दगी ही नही समझती। तुम में और प्राणहीन व्यक्ति में कोई अंतर नही है विनोद! सिवाए इसके कि तुम्हारी सांसे और शरीर चल रहा है बस।
मेरे लिए खाना, पीना, घूमना फिरना, खूब पैसा कमाना और रात को आकर सो जाना, जिंदगी का सिर्फ यह मतलब नहीं है। तुम्हें समझाना बेकार है विनोद।
उस दिन के उसके आखरी शब्द मुझे आज भी याद हैं जानती हो उसने क्या कहा था- राजश्री जिंदगी सबको "फूल" देती है लेकिन तुम जैसे "Fool" अपने लिए कांटे खुद चुनते हैं। जवाब में मैं भी कह आई थी- ऐसे गंधहीन पुष्पों से तो कांटे ही अच्छे।

उस दिन मैं पश्चाताप की अग्नि में जलती रही कि काश मैं उस बच्ची को जबरदस्ती आश्रम ही छोड़ आती। विनोद ने उस दिन जीवन पथ पर अकेले चलने का मेरा विश्वास और पक्का कर दिया था।
कहते कहते राजश्री की आँखे डबडबा आई। अब थोड़ी थकान भी उसके चेहरे पर झलक रही थी। जिसे भाँपते  हुए शालिनी ने उसे पानी देकर कहा, दीदी अब आराम करिए। इतना स्ट्रेस लेना और एकसाथ बोलना आपके लिए ठीक नहीं है। हम आराम से बाद में इस पर बात करेंगे।
राजश्री उसकी बात मानकर लेट गई। शालिनी उसके हाथ को थामकर उसके पास बैठ गई। कुछ देर में राजश्री को नींद लग गई। शालिनी भी टहलने थोड़ा बाहर आ गई। उसने वीणा को फ़ोन किया।

वीणा- हेलो क्या कर रही हो?
दीदी कैसी हैं?
शालिनी- ठीक है अभी थोड़ी नींद लगी है उन्हें। वीणा तुम जानती हो शिवि कौन है?
हाँ जानती हूँ शालिनी। और अब ये भी जानती हूँ आशा जी कौन हैं?  कल रात और आज की दोपहर बस दीदी की डायरियाँ पढ़ने में ही बिताई है।
दीदी ने बहुत कठिन समय देखा शालिनी, और हिम्मत रख कर लड़ी और वो भी अपने लिए नही हमेशा दूसरों को जीवन देने के लिए।
सच कहा वीणा! लेकिन शिवि यानी वो बच्ची उन्हें वापस मिली कैसे?
उस के बारे में दीदी ने विनोद के एक पुलिस मित्र से गुजारिश कर उसी दिन पता लगवाया। बच्ची के पेरेंट्स बन विनोद से कहा कि पुलिस ने बताया हमारी बच्ची आपके पास है।  उसने वह जगह बता दी जहां एक खराब पड़े ट्रक में वो बच्ची को नींद में छोड़ आया था। पुलिस की मदद से दीदी ने उसे ढूंढा बाद में उन्हें पता चला उसके माता पिता की और भी पाँच संताने थी। और उन्होंने अपने सब बच्चों को इसी तरह छोड़ दिया था । और वे इस बच्ची को भी वापस रखना नहीं चाहते  थे।दीदी से मिलने  पर  उनसे लिपट कर खूब रोई वो। उनके पास आई उस समय तक वह  बहुत चुप-चुप, डरी सी रहती थी। उनके प्यार की छाँव में हँसना बोलना सीखने लगी थी। दीदी को ही माँ कहने लगी। उसे लेकर वे अपना शहर छोड़ मेरे छोटे से शहर आ बसी। ये जगह  उनके लिए नई थी तो उन्होंने आते ही यहाँ टीचर की नौकरी कर ली। ताकि शिवि की परवरिश में कोई समस्या न आये।
कुछ दिन बाद उनकी ननद, आशा जी का फोन आया। ये वही हैं जिन्होंने उस दिन हमे डॉक्टर से बात करवाने कहा था। उनके पति एक्सीडेंट में चल बसे थे। ससुराल वाले तो पहले से ही उन्हें रखना नही चाहते थे। विनोद के पास आशा जी खुद जाना नहीं चाहती थीं। दीदी ने उन्हें अपने पास रहने बुला लिया आशा जी भी दीदी और शिवि के साथ आकर रहने लगी। 2- 3 महीनों बाद से ही वे पास के एक कंप्यूटर इंस्टीटूट में कंप्यूटर सिखाने जाने  लगीं।
दुख ने हर तरह से आशा जी को तोड़ दिया था। दीदी से उनकी स्थिति देखी  नहीं जाती थी। निःसंतान होने के ताने अंदर तक ऐसी पैठ बना चुके थे कि वे राजश्री दीदी से कहतीं कि काश! शिवि जैसी मेरी कोई बेटी होती! जिसकी की बेहतर परवरिश कर मैं साबित कर देती की मुझमे भी एक माँ बसती है। 

लोग कितने निष्ठुर होते हैं ना शालिनी! स्त्री में किसी एक छोटी से छोटी कमी को भी वे साधारण रूप से स्वीकार कर ही नहीं पाते या करना ही नहीं चाहते। और इतनी बुरी तरह उसे तोड़ देते हैं उसी एक बात का जिक्र करके कि उसे भी अपनी सारी काबिलियत उस एक कमी के आगे शून्य सी लगने लगती है। सोचो कितने माहिर होते हैं ऐसे लोग अपने काम में, जो इतनी पढ़ी लिखी सम्भ्रांत परिवार की महिला भी इनकी बातों से अवसाद में चली जाती है। जबकि उसके पास जीवन मे करने को कितना कुछ होता है कितने रास्ते खुले होते हैं।

सच है वीणा! लोग जब आशा जी जैसी महिलाओं को मानसिक रूप से इतना ध्वस्त कर देते हैं फिर मेरे जैसी कम पढ़ी लिखी औरतें तो क्या ही ऐसी परिस्थियतियों से लड़ पाती होंगी।
ये तो राजश्री दीदी जैसे दुनियाँ में कुछ लोग हैं जो आज भी अपने साथ दूसरों के जीवन को सँवारने में लगे हैं। और दूसरों के हित का सोच कर जी रहे हैं।
हाँ शालिनी! दीदी के इसी गुण के कारण राजश्री दीदी ने उसी दिन फैसला कर लिया था कि शिवि चाहे मुझे माँ कहती हो पर कानूनी तौर से वो आशा दीदी की ही बेटी रहेगी। और आशा दीदी तो सहर्ष शिवि को गोद लेना चाहती ही थी। कई महीनों की लंबी लम्बी प्रक्रिया के बाद शिवि कानूनी तौर से आशा जी की बेटी हो गई। वे तीनों एक दूसरे के साथ खुश थे।
आशा जी की एक मौसी विदेश रहती थीं उनके भी कोई संतान नहीं थी अचानक सालों बाद उन्हें आशा जी की याद आई और उन्होंने शिवि सहित आशा को अपने साथ रहने का आदेश दे डाला। और वे दोनों वहीं रहने लगी। पर शिवि की आत्मा अब भी दीदी में बसती है आज भी वो इन्हें ही मां कहती है और आशा जी को मम्मी।  दिन में एक बार रोज़ इनकी फ़ोन पर बात होती थी। दीदी का भी लगाव उससे बहुत है उसे शिवि नाम भी इन्ही का दिया हुआ है।

दीदी चाहती थीं लाइफ अच्छे से सेट हो जाने सब काम पूरे हो जाने और वर्द्धावस्था आने के बाद ज़िन्दगी के आखरी पड़ाव पर वे शिवि के करीब रहेंगी।

आशा दी के जाने के कुछ समय बाद ईश्वर ने दीदी से मेरी मुलाकात करवा दी उन्होंने मुझे और राजन्शी को अपने सगों से भी ज्यादा प्यार दिया शालिनी। उन्होंने मुझे पढ़ने के लिए प्रेरित किया। प्राइवेट फॉर्म भरवाकर परीक्षाएं दिलवाती रहीं। पर इस स्वार्थी समाज कुत्सित मानसिकता वाले लोगों के बीच मे अकेले जी पाने का डर,  वो भी एक बेटी के साथ कहीं न कहीं अब भी मेरे मन मे घर किया हुआ था। जिसे डिओर कर मुझमे आत्मविश्वकस भरने के लिए दीदी ने मुझे निःशुल्क सेल्फ डिफेंस की क्लास भेजा। उनके शब्द  आज भी मुझे याद हैं। तब उन्होंने कहा था "वीणा नैतिक गुण, आंतरिक संवेदनशीलता की कोमलता, के साथ  सम्पूर्ण शिक्षा, आत्मरक्षा की सशक्तता और उसके साथ ईश्वर के फैसलों पर विश्वास। ये चंद बातें अगर किसी लड़कीं मे हो तो वह कहीं भी अपना जीवन शांति और सम्मान से अकेले भी व्यतीत कर सकती है। अपनी बेटी को ये सब जरूर देना।"
उसके बाद की कहानी तो तुम जानती हो।  दीदी तुम्हारे शहर आ गईं अपनी लॉ की प्रैक्टिस पूरी कर वकील हो गईं। फिर तुम, रक्षा, विभा, रानी के रूप में न जाने कितनी सहेलियाँ ढूंढ ली उन्होंने। किसी की बेटी बन गई किसी की बहन।
अब दीदी के जीवन की दो ही बड़ी ख्वाइशें हैं शालिनी और मैं चाहती हूं वो दोनों जल्द से जल्द पूरी हों। 1 तो मेरे हाथ मे नहीं उसके लिए प्रार्थना ही एक रास्ता है पर दूसरी के लिए में पुरज़ोर कोशिश करूँगी।

कहानी जारी है...

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