जीवन सारथि भाग 10


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जीवन सारथि भाग 1

रात के 11 बजे राजश्री की पहली डायरी से उसके अतीत के पन्ने वीणा के  सामने एक एक कर खुलने लगे। पढ़ते हुए राजश्री का चेहरा और उसके अतीत का एक एक चलचित्र निरंतर वीणा की आंखों में घूम रहा है। वीणा ने पढ़ना शुरू किया-
आज मेरी जिंदगी की नई शुरुआत है। सब कुछ पीछे छोड़ आई हूँ वह पुरानी जिंदगी,  मेरी पुरानी डायरियाँ, जिनमें जिंदगी को सुनहरे और हसीन लम्हों की कल्पना समझ कर लिखा था मैंने। लेकिन मिला,  सिर्फ और सिर्फ दुख, दर्द, आँसू  और परेशानियाँ। यहाँ से चाचा-चाची के पास जा नहीं सकती, क्योंकि वह वापस मुझे विनोद के पास भेजेंगे। विनोद के पास रह नहीं सकती क्योंकि वह घर उनका है मेरा नहीं। और मैं शायद उनकी अपनी हूँ नहीं।
कमाल की बात है ना मैंने जिस व्यक्ति को अपने तन, मन, धन सब में हिस्सेदार बना लिया, सब कुछ दे दिया, वह मुझे अपने मकान में भी जगह नहीं दे पाया!
मेरे जैसी स्वनिर्मित, स्वाभिमानी लड़की की जिंदगी में ये मोड़ भी आएगा सोचा न था।
विनोद के उस दिन कहे शब्द आज तक मेरे दिमाग मे हथौड़े की सी चोट कर रह रहे हैं। पर मैं ज्यादा समय एक ही दुख लेकर रोने वाले लोगों में से नही हूँ। जल्द ही भूल कर आगे बढ़ जाउँगी। इसलिए आज मैं उन्हें अपनी डायरी में जस का तस लिख लेना चाहती हूँ। ताकि में ज़िन्दगी भर ये बातें न भूलूँ। व्यवहार तो मुझे तुम्हारा शुरू से अजीब लगता था कितने असंवेदनशील थे तुम विनोद! पढ़े-लिखे होकर भी तुममे वो समझ, वो संवेदनाये न जाने क्यों जागृत नहीं हो पाई जो एक समझदार व्यक्ति में किशोरवस्था में ही आ जाती हैं।
बेवजह ही तुम राह चलते जानवरों को पत्थर मार उन्हें दर्द पहुँचाते थे। न जाने तुम्हें इसमें क्या मज़ा आता था?
कई बार तुम बेवजह ही मुझ पर भड़क जाते थे।
बिना किसी बात के अपना स्टैण्डर्ड मुझसे ऊँचा होने के ताने सुनाते।
"ये मेरे स्टैंडर्ड को सूट नही करता, ये मेंरा स्टैण्डर्ड नहीं।"
और तो और तुमने तो मेरे चाय पीने को भी लो स्टैण्डर्ड बता कर ये तक कई बार कहा कि चाय और कॉफी वालों का आपस में क्या मेल?
तुम्हारी इन सब बातों को मैं बचकाना और मज़ाक समझ नज़रअंदाज़ करती रही। मगर ये देर से समझ पाई कि तुम्हारे व्यक्तिव में भावनाओं और संवेदनाओं की अल्पता की वजह से तुम्हारा व्यवहार ऐसा है।
हद तब हो गई जब तुमने अपनी सगी बहन को तकलीफ होने पर उसे ससुराल से घर आने पर भी उसके दुःख से ज्यादा अपने स्टैंडर्ड की फिक्र थी!?
"लोग क्या कहेंगे? हमारे ख़ानदान में किसी बेटी ने कभी ससुराल नही छोड़ा। जो परेशानी है अपने घर मे निपटाओ।" ये शब्द थे तुम्हारे। तुम्हारी इतनी दकियानूसी सोच ने मुझे बहुत आहत किया था। और इस बात पर तुम्हारी बेवजह की दलीलों का विरोध करने पर तुमने मुझे अपने मायके भेज दिया था। कितने दोहरे मापदंड!!! अपने ख़ानदान की बेटी मायके नहीं बैठती और दूसरे की लड़की को बिन बात घर से निकालने में स्टैंडर्ड ऊंचा हो जाता है! शायद ये ही तुम्हारी शान है।
मेरे किसी की मदद करने से भी तुम्हें अथाह परेशानी होती थी। "मेरा पैसा फालतू नहीं हैं किसी की मदद करने के लिए।" तुम्हारे हमेशा यही शब्द होते थे। जबकि पैसे मैंने कभी तुम्हारे उपयोग नहीं किये किसी की मदद में।
और जब शिवि को मैं अपने साथ घर लाई , क्या कहा था तुमने?
"चुन लो तुम या तो यह या मैं।"
मैंने रोते हुए कहा भी था कैसे संभव है, तुम सोच भी कैसे सकते हो विनोद सात फेरे लेकर तुम्हारे साथ जीने मरने की कसमें, या किसी का जीवन।इन दोनों में से किसी को भी कैसे दूसरे नंबर पर रखा जा सकता है!?"
बाहर से लाये कचरे को मैं क्या कोई भी इंसान अपने घर में नहीं रख सकता।" ये जवाब में तुम्हारे शब्द थे।
जो व्यक्ति इंसान और कचरे में फर्क नहीं समझ सकता, जिसके लिए व्यक्ति वस्तु एक समान हों,  उसके साथ ज़िन्दगी बसर करते हुए उसके लिए मैं कब वस्तु बन जाऊँगी कोई भरोसा नहीं। अच्छा हुआ मैने तुम से किनारा कर लिया। वरना मेरे अंदर का इंसान उसकी संवेदनाएँ, भावनाएँ या तो तुम्हारे साथ रहते हुए रोज घुट घुट कर मेरे अंदर जीती या तुम्हारे जैसे व्यक्ति के प्रभाव में आकर शायद मेरे अंदर ही वो भी दम तोड़ देतीं और मुझे भी तुम्हारी तरह बना देती........
वीणा पढ़ती चली जा रही थी। राजश्री की पहली डायरी  पूरी खत्म करते वीना को रात की 2 बज चुकी थी राजन्शी की नींद खुलने पर रात को माँ को खुद से दूर जागते देख अपने पास आकर सोने की ज़िद करने लगी। वीणा उसके पास जाकर लेट गई थकान और मानसिक तनाव से उसे भी नींद आ ही गई।
सुबह उठकर वीणा राजन्शी की स्कूल की तैयारियों में लग गई। बुटीक खोल अपनी दोनों स्टाफ मेंबर्स को बिठा वह पहले संस्था पहुँची। रास्ते मे शालिनी ने फ़ोन पर उसे बताया कि आज राजश्री को पहली कीमोथेरेपी के लिए लेकर गए हैं। कुछ देर में थेरेपी खत्म होने वाली है। फिर मैं दीदी के पास जाऊँगी।भगवान करे उन्हें ज़्यादा परेशानी न हो।
ऐसा ही होगा शालिनी पॉजिटिव रहो।

कुछ देर बाद राजश्री की थेरेपी पूरी हो जाती है। उसके कुछ देर के अंतराल के बाद डॉ शालिनी को अंदर बुलाते हैं।
"जैसा मैंने कहा था आज के दिन इन्हें अंडर ऑब्सर्वेशन रहना है। शरीर पर थेरेपी के प्रभाव हम देखेंगे। हल्की थकान, सिरदर्द मितली, जैसी समस्याएँ इन्हें हो सकती है जिसके लिए आप ये दवाइयाँ इन्हें दे सकते हैं।  बाकी कोई परेशानी हो तो मुझे इन्फॉर्म करिएगा।"
"जी डॉक्टर।"
"और कोशिश करिए आप इन्हें बिजी रख पाएँ चाहे  बातें करें चाहे कोई गेम खेलें जो आप लोगो को अच्छा लगे।" कहकर डॉक्टर चले गए।

"कैसा लग रहा है दी कोई समस्या तो नहीं? शालिनी ने पूछा।
समस्याएँ हमे देख के भाग जाती हैं शालू।"
हाँ दीदी ये तो है। शालिनी उसकी हिम्मत देख मुस्कुराई

हम्म... भई!आज तो शालिनी की मन माँगी मुराद पूरी हो गई।  हमेशा कहती थी न तुम, दीदी आपकी बाते ऐसी लगती है मन करता है किसी दिन पूरा दिन आपके पास बैठकर आपको सुनते रहूँ। शालिनी मुस्कुराई।

राजश्री का फ़ोन बजता है। शालिनी फ़ोन की स्क्रीन पर देखते हुए, दीदी शिवि नाम फ़्लैश हो रहा है फ़ोन पर।

मेरी बात कराओ। राजश्री ने कहते हुए फ़ोन लेने के लिए हाथ आगे बढ़ाया। शालिनी ने फ़ोन उसे दिया।

हाँ शिवि में ठीक हूँ। तुम सिर्फ अपने प्रोजेक्ट पर ध्यान दो यहाँ शालिनी है मेरे पास। बाकी काम वीणा ने संभाल लिए हैं। कोर्ट से रिलेटेड कुछ इश्यूज श्रीधर देख रहा है। बाकी के लिए मैं अपनी मेडिकल कंडीशन बताकर एक आवेदन के ज़रिए श्रीधर को अपने कामों के लिए अथोराइज़ करने की परमिशन ले लूँगी।

नहीं! अभी नहीं। जब तक मैं नही कहती तुम नहीं आओगी शिवि।

ठीक है। हम बाद में बात करेंगे। टेक केअर

राजश्री ने फोन शालिनी को सौंप दिया।
शालिनी के मन मे फिर सवाल शोर मचाने लगे मगर वह राजश्री से खुद पूछना नहीं चाह रही थी।

"वही शिवि थी ये जिसके बारे में विनोद उस दिन मुझे ताने सुना रहा था। उसके चेहरे के भावों को भांप राजश्री ने खुद ही बता दिया।"

शालिनी की नज़र राजश्री के चेहरे पर थी। उसका चेहरा उतरा हुआ और बेहद उदास था।

"मेरे माता पिता नहीं हैं शालिनी। चाचा-चाची के पास बड़ी हुई। ग्रेजुएशन किया ।स्कॉलरशिप से लॉ किया। प्रैक्टिस चल रही थी और विनोद से मेरी शादी तय हो गई उसकी फैमिली में विनोद उसकी माँ और एक शादीशुदा बहन थी। पढ़ी लिखी फैमिली लगी तो मैने भी बिना जाने समझे मंज़ूरी दे दी। मगर कुछ समय में समझ आया कि विनोद और मेरे स्वभाव में ज़मीन आसमान का अंतर है। वो कहता था प्रेम बेहद है उसे मुझसे।  लेकिन चीजें ला देना तुम्हारी राजश्री के लिए प्रेम की श्रेणी में नहीं आता था। और उसके लिए बस मेरी जरूरतें पूरी कर देना, महंगी चीजें खरीद देना, प्रेम की असल परिभाषा थी। उसे मेरा किसी की मदद करना फूटी आंख नही सुहाता था। उसके मेरे विचार कभी मेल नहीं खा पाए। मैं उसके साथ पांच  मिनिट भी बैठकर बात नही कर पाती थी। कुल मिलाकर मैं खुश नही थी। उसकी कई बातें मुझे खटकती, मानसिक रूप से आहत करती। चाचा चाची से कहती तो वो कहते पैसा है, घर है , गाड़ी है, तुम्हारी अपनी तनख्वाह है और क्या चाहिए? न जाने लोग खुशियों का  पैमाना हमेशा से  इन भौतिक सुविधाओं को क्यों मानते हैं? मैं वहां कैसे रहती जहाँ मेरा मन, मेरे विचार आज़ाद नही थे। जहाँ मुझे सुकून नहीं था। जब मैं कहती कि उसका बर्ताव ठीक नही है मेरे साथ, तब वे कहते बेटी वह तुम्हें मारता तो नहीं है ना!?
क्या मानसिक प्रतारणा जुर्म नही? क्या ये कोई समस्या नही शालिनी?  विडम्बना है कि ये घाव दिखाई  नहीं देते। पर होते बहुत गहरे हैं।
उसे मेरा प्रोफेशन भी पसंद नहीं था। सब कुछ समझते हुए भी मैं न जाने क्यों इस रिश्ते में सामंजस्य बिठाने की पुरजोर कोशिश कर रही थी। इस बीच मेरी ननद हमारे घर आ गई थी उनके ससुराल पक्ष के लोग उन्हें निःसंतान होने पर परेशान कर रहे थे।
उन्हें कुछ दिन यहाँ रख इस विषय पर बात करने का सुझाव देने पर विनोद मुझ पर बुरी तरह भड़क गया। उसने ये तक कह दिया कि ये मेरा घर है। यहां मेरे फैसले चलेंगे। मेरी वजह से ही ये मान सम्मान स्टेटस है तुम्हारा। वरना तुम क्या हो? हर समय सिर्फ महान बनना है तुम्हें। मेरी मर्जी के बिना इस घर में ये सब नही हो पायेगा।
जानती हो शालिनी उस दिन गहरा धक्का लगा मुझे। विनोद तो अपनी बात कह कर चला गया, पर मैं बस भावशून्य ताकती रही। सोच में पड़ गई कि सब कुछ होते हुए कोई मुझे कैसे अस्तित्वहीन करार दे सकता है वो भी मेरा इतना करीबी? और अपनी ही बहन के प्रति कोई इतना लापरवाह इतना असंवेदनशील इतना भाव विहीन कैसे हो सकता है?
इस घटना ने मुझे अंदर से खाली सा कर दिया था।
उसके 2-4 दिन बाद ही  मुझे सुनसान रास्ते पर डरी सहमी सी बैठी 1 बच्ची मिली। उसके करीब जाने पर वह घबरा रही थी। बड़ी मुश्किल से उसे समझा पाई कि मैं उसे नुकसान पहुँचाने नहीं, बल्कि मदद करने की नीयत से रुकी हूँ। वो इतनी डरी हुई थी न अपना नाम बता रही थी न ही कुछ और। मैं उसे घर ले आई। मैं जानती थी विनोद ये एक्सेप्ट नहीं करेगा। मगर मैने सोचा कि कल तक मैं उसके बारे में पता कर पुलिस में सूचना दूँ, उसके लिए  कोई दूसरी व्यवस्था करूँ,  तब तक तो इसे घर ले जाना ही सही होगा।
कहानी जारी है...

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जीवन सारथि भाग 11

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