7)रूह का रिश्ता: राह-ए-कश्मीर

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रूह का रिश्ता: एक अंधेरी रात

रूह का रिश्ता:अतीत की यादें

रूह का रिश्ता: अनहोनियों की शुरुआत

रूह का रिश्ता: अनसुलझी पहेलियाँ

रूह का रिश्ता: लम्हे खुशियों के

रूह का रिश्ता: भूलभुलैया


 पिछले एपिसोड में आपने पढ़ा, पार्टी में मिले गिफ्ट बॉक्स में से 2 बॉक्स में फिर से कुछ अजीब और भयावह चीजें निकलती है। जिनकी जानकारी रायचंद जी पुलिस को देते हैं। पूछताछ में पुलिस पता करना चाहती है जहां वह गिफ्ट बॉक्स रखे थे उस रूम की चाबी किसके पास थी, जिसमें सुरेश का नाम आता है और पुलिस सुरेश और रायचंद जी के बारे में पूछताछ करती है जो अफसर इसकी जांच कर रहे हैं, उन्हें सुरेश का चेहरा जाना पहचाना सा लगता है। अब आगे-

रूह का रिश्ता: राह-ए-कश्मीर

अमर और तृषा की दसवीं बोर्ड की परीक्षाएं खत्म हो चुकी हैं रक्षा के फर्स्ट ईयर का भी लास्ट सेमेस्टर का लास्ट पेपर था आज।
"तृषा दादी की गोद मे सिर रख कर लेटी है। तुम्हारे पेपर्स कैसे हुए मेरे बच्चे?"

"दादी पेपर्स तो इसके हमेशा ही अच्छे होते हैं बस रिजल्ट ही खराब आते हैं।" अमर अंदर आते हुए बोला।

अमर की आवाज़ सुन तृषा झट से उठ कर अपना दुपट्टा ठीक कर बैठ गई। अमर को बड़ा आश्चर्य होता है आजकल तृषा के व्यहार में वह बदलाव महसूस कर रहा है। आजकल वह दरवाज़ा भी नॉक करके आरती है। अमर की कोई भी बात झट से मान लेती है जबकि पहले वह हर बात पर उससे झगड़ा ही किया करती थी। और यही बदलाव दादी भी देख रही है। अगर पुरानी तृषा होती तो अमर के आने पर भी बेवपरवाह सी दादी की गोद मे  ही लेट कर बात कर रही होती आजकल अमर की उपस्थिति में वह ज्यादा गंभीर और परिपक्व व्यवहार करने लगी है।
तृषा का दादी के साथ लगाव इतना अधिक था वह अपनी हर बात दादी से शेयर करती थी। उसके मन का कोई कोना ऐसा नहीं था, जहां दादी की उपस्थिति ना हो।
दादी, मैं और तृषा आइसक्रीम खाने जाएं?"
"जरूर जाओ पर जल्दी वापस आना।"
ओके दादी!

"कितनी ठंडी हवा चल रही है ना?" तृषा बोली

"हम्म!!" "शाम को मौसम थोड़ा ठीक लग रहा है आजकल इन हवाओं के कारण, वरना गर्मी से बेहाल ही जाते।"अमर ने समर्थन किया।

"अमर मुझे न थोड़ा टेंशन हो रहा है।"
" क्यों किस बात का!?"
"कहीं मैं फेल न हो जाऊं!"
"नहीं होंगी। मुझे भरोसा है। और अगर हो भी गई इतनी क्या चिंता करने की बात है!? परीक्षा के नंबरों के आधार पर जीवन नहीं चलता। एक बार फिर से कोशिश कर लेना।
"फिलहाल तो सारी टेंशन छोड़ कर आइसक्रीम खाओ"  मार मुस्कुरा कर कहता है।

"क्या बात है!!! आजकल तो आइसक्रीम भी बड़े सलीके से खाई जा रही है।"

"क्यों!? मैं तुम्हें अब इस तरह अच्छी नहीं लगती!?
"तुम मुझे अब भी उतनी ही अच्छी लगती हो, जितनी पहले लगती थी! कहकर अमर मुस्कुरा दिया
और इसके इस वाक्य को सुनकर तृषा की धड़कने बढ़ने के साथ, मन में उठी खुशी की हिलोरे भी मुस्कान के रूप में होठों पर फैल गई।

एक सुखद सा अहसास, एक मीठी सी चुभन, कुछ घबराहट दोनों महसूस करते थे अपने मन में।
दोनों की कुछ बातें एक दूसरे की धड़कनें बढ़ा देती थीं। लेकिन दोनों ही कभी प्रत्यक्ष रूप से एक दूसरे को अपने मन की  इस अनुभूति के बारे में कुछ न बताते।

गर्मियों में लगभग हर रोज रक्षा, अमर और तृषा की आइसक्रीम पार्टियां हुआ करती। कभी निशा बेंगलुरु से आ जाती तो चारों मिलकर आइसक्रीम खाने जाया करते। और तृषा रोज आकर दादी को उनकी आइस्क्रीम पार्टी की बातें बताया करतीं।

इधर जन्मदिन में हुए हादसे के बाद से दो-तीन महीने तक अन्य किसी प्रकार की कोई अजीबो गरीब घटना नहीं हुई तो सब लोग थोड़ा निश्चिंत थे। सब पहले की तरह सामान्य चल रहा था। इसी तरह एक दिन जब रक्षा अमर और तृषा आइसक्रीम खाकर घर आए तो घर पर बड़ों की मंडली जमी हुई थी। सब इस बार की ट्रिप प्लान करने के लिए इकट्ठे हुए थे। हर साल परीक्षाएं होने के बाद राय चंद जी मूलचंद जी और सुरेश जी का परिवार एक साथ ट्रिप पर जाया करता था।

"अरे वाह!!!! तुम लोग आ गए?  चलो जल्दी बताओ इस बार कहां जाना है रायचंद जी ने कहा!"

"तीनों के चेहरे पर खुशी बिखर गई! यिप्पीssss! हुर्रररेssss!! "
खूब सारी बहस के बाद आखिर में सब कश्मीर पर एकमत हुए। ट्रिप प्लान होते ही घर मे उत्सव का माहौल हो जाता है। दोनों घरों में भागमभाग मची होती है। सब इधर से उधर भाग रहे हैं।

"वहाँ का मौसम बहुत असामान्य होता है, अन्दाज़ा लगाना मुश्किल  होता है कि कब बर्फबारी शुरू हो जाए! सर्दी के कपड़ों की पैकिंग अच्छी तरह कर लेना। और कुछ खरीदना है तो आज कल में अपनी अपनी  खरीददारी पूरी कर लो। रायचंद जी सभी से कहते हैं। 

सब लोग पैकिंग शॉपिंग में बिज़ी हैं। रायचंद जी मूलचंद जी को कश्मीर के प्लान के बारे में बताते हैं। वे काम अधिक होने का कहकर सिर्फ निशा को भेजने की बात करते हैं। अगले दिन वे लोग हंसते खेलते गाते गुनगुनाते ट्रिप पर निकल जाते हैं। गुना से दिल्ली और वहाँ से वे श्रीनगर के लिए फ्लाइट लेते हैं। श्रीनगर पहुंच कर सब थक चुके होते हैं, वहाँ वे एक बोट हाउस में रुकते हैं।

तृषा, निशा और रक्षा बोट हाउस से बाहर के नजारे देखते हुए बातों में मगन हैं।
"कितना प्यारा नज़ारा है न तृषा कहती है।"

"हाँ! मज़ा तो बहुत आ रहा है यहाँ!"
"बस मैं एक ही चीज मिस कर रहा हूँ!" जवाब निशा के देने के पहले ही दूसरी तरफ से आते हुए अमर दे देता है।

"वो क्या!?"निशा ने पूछा।

"तृषा के हाथ की गर्म गर्म चाय।"
सुनकर निशा हंस पड़ती हैं।
"क्या अमर!!!! मुझे लगा कुछ बहुत प्रीशियस मिस कर रहे हो।"

"ये प्रीशियस से भी ज्यादा प्रीशियस है निशा मेरे लिए।"
अमर कहकर तृषा की और देखता है, जो मंद मंद मुस्कुरा रही होती है।

कुछ देर बातें करने के बाद सब थक कर सब सो जाते हैं।
अगले दिन वे शिकारा की सवारी करते हुए डल लेक के मीना बाजार में शॉपिंग का लुत्फ लेते हैं।

शिकारा में बैठे अमर और तृषा की नज़र हर थोड़ी देर में लेक के कांच से दिखते पानी मे पड़ती,  जिसमें दिख रहे एक दूसरे के चेहरे पर नज़र पडते ही दोनों के चेहरे पर सहज ही मुस्कान आ जाती। 

वे सब श्रीनगर के साथ ही पहलगाम, तनमर्ग, सोनमर्ग, गुलमर्ग  घूमने का कार्यक्रम बनाकर आये थे, इसलिए यहाँ से अगले 8-10 दिनों के लिए वे दो कैब्स बुक कर लेते हैं।

एक कैब में रक्षा के साथ अग्रवाल और कुमार दम्पति और दूसरे में दादी, अमर, तृषा और निशा बैठे थे। श्रीनगर से पहलगाम के रास्ते मे तनमर्ग की सुंदर पहाड़ियाँ, अवन्तिपुर से पहले सड़क के दोनों ओर केसर के खेतों में, बैंगनी रंग के केसर फूल उनकी आँखों में और उनसे दूर तक आने वाली खूशबू उनके मन मस्तिष्क में घर कर रही थी।
ड्रंग फॉल से गिरता बर्फ मिला पानी और दूर तक छाया धुंधला कोहरा!!!
ये सब मनमोहक दृश्य उन सबकी सारी थकान, चिंताएँ  आगे बढ़ते हुए रास्ते के साथ पीछे छोड़ते चले जा रहे थे।

"लोग क्यों कश्मीर को धरती का स्वर्ग कहते हैं। आज समझ आ रहा है।" दादी उन दृश्यों में खोकर बोली।

"मज़ा आ रहा है ना दादी!!!" तृषा खुश होते हुए बोली।
"सच बेटा! बहुत खूबसूरत जगह है!"

रक्षा और निशा जहां हर दृश्य के साथ अपने फोटो लेने में बिजी थी। वहीं तृषाइन सब दृश्यों को अपने मन मस्तिष्क रूपी कैमरे में उतारती चली जा रही थी। घर जाकर उसे इन सबको कैनवास पर जो उतारना था।

रायचंद जी भी प्रकृति के मनमोहक रंगों में खो कर अपनी पिछली पुरानी चिंताओं को कुछ समय के लिए भूल चुके थे।
पहलगाम पहुंच कर वे एक होटल में रुके।
हल्की बर्फबारी शुरू हो चुकी थी। बालकनी से सभी इस दृश्य का मज़ा ले रहे थे। चारों और गिरी बर्फ ज़मीन पर सफेद चादर सी लग रही थी।

एक दिन वे यहाँ रुके। कुछ जगहों पर घूमने और लंच के बाद वे गुलमर्ग के लिए निकल गए। गुलमर्ग जाने का रास्ता पूरा पहाड़ी इलाका था। इस इलाके में नेटवर्क पूरी तरह नहीं आ रहा था। पोस्टपेड होने के बावजूद नेटवर्क कनेक्टिविटी प्रॉपर नहीं थी। रायचन्द जी के पास उनके मैनेजर का दो बार फ़ोन आया मगर बात नही हो पाई।
गुलमर्ग जाते हुए सब इन पहाड़ी रास्तों की सुंदरता में खो से गए। पहाड़ी की और जाती सुगम सड़क के दोनों और देवदार और चिनार के लंबे लंबे पेड़ जिनका कुछ हिस्सा हल्की बर्फबारी के कारण बर्फ से ढँका है। हरे सफेद से दिखते ये वृक्ष, आसपास  खूबसूरत वादियां जहां कोहरा छाया हुआ है। 
सर्द हवा के थपेड़े आकर सबके गालों को गुलाबी कर जा रहे हैं। पहाड़ों पर  दूर तक खुला मैदान जो कहीं कहीं बर्फ की चादर से ढँका हुआ है।
गुलमर्ग जाने वाली सड़कें इतनी समतल थीं कि सीधी सड़क से ऊँचाई पर बनी गुलमर्ग की पहाड़ियों में वे सब कब पहुंच गए उन्हें पता भी नही चला।

गुलमर्ग पहुंचकर वे एक दिन वही होटल में रुके। सुंदर वादियाँ और अभी भी हल्दी बर्फबारी जो सबका मन मोह ले, वहाँअब भी शुरू थी।
सुधा जी!! मुझे लगा था, मार्च में शायद ही स्नोफॉल देखने को मिले। लेकिन हम लकी हैं शायद रायचंद जी खुश होकर बोले।

"आज वे लोग गंडोला राइड का लुत्फ उठाने वाले थे।
समुद्री तल से लगभग 13500 फ़ीट ऊँचाई पर केबल कार में बैठ इन पहाड़ियों देखने और घूमने का अनुभव ही अलग होगा।"
अमर उत्साहित होकर कहता है।

"मुझे तो बड़ा डर लग रहा है अमर!!! इतनी ऊंचाई पर जाकर तो मेरी साँस ही रुक जाएगी।" तृषा बोली।

अरे! ऐसे कैसे! मैं हूँ न तेरे साथ, और  रक्षा दीदी भी हैं। निशा बोली।

टिकट लेने तक तृषा और दादी इस केबल कार में घूमने को तैयार ही नही थे। दादी के बुजुर्ग होने के नाते सबको उनकी बात सही लगती है और उन्हें सब होटल में रुकने को कहते हैं।

"मैं भी दादी के साथ रहूँगी।" तृषा बोली

"इतना क्या डरना तृषा आई हो तो एन्जॉय करते हैं।"
निशा ने ज़िद की।
"दादी के पास भी तो कोई हो।" तृषा ने तर्क दिया।

"दादी रह लेंगी। उन्हें कोई परेशानी नही होगी।"
अमर और निशा की ज़िद के आगे आखिरकार तृषा को झुकना पड़ा।

तृषा की घबराहट तो चरम सीमा पर थी।। गंडोला राइड के समय आगे वाली कार में, निशा अमर और तृषा रक्षा बैठते हैं। और सुधा जी, रायचंद जी सुरेश जी और विनीता जी उनके पीछे वाली केबल कार में।
अमर के पास वाली सीट पर निशा का बैठ जाना न जाने क्यों तृषा को खल जाता है। मगर वह कुछ बोल नही पाती। इस राइड के दौरान दूसरा फेज पूरा कर  वापसी के सफर के खत्म होने के कुछ ही मिनट पहले अचानक तृषा खुद पर एक धक्का सा महसूस करती है। यह धक्का उसका बैलेंस बिगाड़ता हुआ उसे निशा और अमर के ऊपर धकेल देता है। वे दोनों सहारा दे तृषा को उठाकर सीट पर दुबारा बैठने में सहायता करते हैं। साथ ही उनके पीछे वाली केबल कार पर अमर की नज़र पड़ती है जो धीरे धीरे हिलती हुई रोप वे पर अचानक तेज़ी से हवा में झूलते किसी झूले की तरह दाएं बाएं डोलने लगती है। वे चारों बड़ी मुश्किल से एक दूसरे का हाथ पकड़ बैलेंस बना बैठने की कोशिश करते हैं।
ये सब देख वे अमर, तृषा,  निशा और रक्षा बेहद डर जाते हैं। उनकी सांसे जैसे अटकी रह जाती है।

दूसरे फेज से वापसी का सफर  खत्म करते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ती हुई अमर, रक्षा, निशा और तृषा की केबल कार डर के साएँ में आखिरकार कार स्टेशन के अंदर आ जाती है। वे सब वही  खड़े होकर अपने माँ पिता की केबल कार के आने का इंतज़ार कर रहे होते हैं।

उधर केबल कार में बैठे रायचंद जी का फ़ोन जो नीचे कहीं भी नेटवर्क नही दर्शा रहा होता अचानक इतनी ऊंचाई पर बजने लगता है। फ़ोन उठाते ही दूसरी तरफ की बात सुन उनकी आंखें फटी की फटी रह जाती हैं।
आखिर क्या होने वाला है। फ़ोन का नेटवर्क इतनी ऊंचाई पर बन्द केबल कार में अचानक कैसे ठीक हो गया? आखिर फ़ोन पर कौन है और उसने क्या कहा? जानने के लिए पढ़ें अगला एपिसोड

Episode 8

रूह का रिश्ता: हादसों की शुरुआत


टिप्पणियाँ

  1. वाह ! जीवंत नजारा शब्दों से पेश किया । मानो खूद ही वहा प्रत्यक्ष पहुँच कर घूम रहे हो आखिर का सस्पेन्स मोड थरारक । बहोत खूब महोदया

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