9) रूह का रिश्ता: रहस्यों की पोटली

 पिछले भाग पढ़ने के लिए लिंक पर टच करें।

रूह का रिश्ता: एक अंधेरी रात

रूह का रिश्ता:अतीत की यादें

रूह का रिश्ता: अनहोनियों की शुरुआत

रूह का रिश्ता: अनसुलझी पहेलियाँ

रूह का रिश्ता: लम्हे खुशियों के

रूह का रिश्ता: भूलभुलैया

रूह का रिश्ता:राह-ए- कश्मीर

रूह का रिश्ता: हादसों की शुरुआत

पिछले एपिसोड में आपने पढ़ा जिससे केबलकार में सुरेश और रायचंद जी अपनी पत्नियों सहित बैठे थे। उनका एक अविश्वसनीय और अप्रत्याशित तरीके से एक्सीडेंट होता है और केबल कार नीचे गिर जाती हैं। सब लोगों की हालत बहुत खराब है।  सब एक दूसरे को संभालने की बहुत कोशिश कर रहे हैं।काफी घंटों की मशक्कत के बाद भी उन चारों का कोई पता नहीं चल पाता। मूलचंद जी के पास गुना पुलिस का फोन आता है और वे उन्हें कुछ बताते हैं, जो रायचंद जी को भी उनके एक्सीडेंट के पहले बता चुके होते हैं। अब आगे

रूह का रिश्ता: रहस्यों की पोटली


तफ्तीश करते अब  3 दिन हो चुके थे। लेकिन उनमें से किसी का भी कोई पता नहीं चल पाया था। केबल कार उन्हें मिल चुकी थी। लेकिन जिस जगह वह मिली, उसके कई किलोमीटर आसपास दूर तक ढूंढने के बावजूद भी उनमें से एक के भी शव  रेस्क्यू टीम को नहीं मिल पाए। मूलचंद जी अपना सारा बिजनेस छोड़ ज्यादा दिन वहाँ नहीं रुक सकते थे। पुलिस ने भी उन्हें सलाह दी कि वह सब वापस अपने शहर लौट जाएँ। यदि उन्हें किसी भी तरीके की कोई जानकारी मिलती है तो वे फ़ोन पर सूचित करेंगे। मूलचंद जी से जरूरी जानकारी लेकर अपनी सारी कागज़ी खानापूर्ति कर पुलिस ने सबको जाने की सलाह दी।
दादी को वापस लौटने के लिए मनाना बेहद मुश्किल रहा। वे अपने मोनू पर बरस पड़ी
"चाहे कुछ भी हो जाए, वहां से सब को सही सलामत वापस लेकर ही लौटेंगे।"
"अब यह संभव नहीं है माँ, परिस्थितियों को समझने की कोशिश करें। कितनी ऊंचाई से गिरे हैं वे, वहां से....  आगे वे बोल नहीं पाते, उनका कंठ सूख जाता है।
दादी उनका आशय समझ फिर जोर जोर से रोने लगती है।  भरे मन से वे सब यहां से वापस जा रहे थे। यहां आने का जितना उत्साह था वह सब मातम में बदल चुका था। अब इन वादियों में उन्हें कोई खूबसूरती नहीं दिख रही थी। जहाँ कुछ समय पहले जन्नत का अहसास लग रहा था वही अब जहन्नुम बन गई थी। जहाँ हर तरफ बहारों का मौसम था, वही अब सुनसान वीरान रास्तों के अलावा कुछ महसूस ही नहीं हो रहा था। वो खूबसूरत बर्फ से ढँके वृक्ष अब उन्हें किसी भयावह राक्षस से दिख रहे थे। अब यह खूबसूरत सफेद रंग उन्हें चारों ओर मातम का अहसास करा रहा था। आज ये ट्रिप उन्हें किसी श्राप से कम नहीं लग रही थी। जिसे उन सबको आजीवन भोगना था। 

वापस लौटते हुए वे सब रायचंद जी, सुधा जी, विनीता जी और सुरेश जी की कमी पल पल पर महसूस कर रहे थे। उन्हें हर पल उनकी याद आ रही थी कभी एक रोता, तो कभी दूसरा सब एक दूसरे को संभाले, एक दूसरे को सांत्वना देते हुए वे वापसी कर रहे थे। न जानें1 हंसते खेलते मेरे बच्चे कहाँ खो गए। कहकर दादी की रुलाई फिर फुट पड़ी।
अचानक चलती गाड़ी का बैलेंस बिगड़ने लगा, जिसमे मूलचंद जी, दादी अमर तृषा रक्षा बैठे थे, गाड़ी में लगी एंटिस्किट चेन जो गाड़ी को बर्फीले रास्ते पर फिसलने से बचने के लिए लगाई जाती है वह एकदम से टूट गई और पहाड़ियों से नीचे आने वाली गाड़ी ढलान रोड पर बर्फ में तेज़ी से फिसलने लगी। आगे रोड पर दोनों साइड रेलिंग लगी होने से गाड़ी रेलिंग पर टकरा कर रेलिंग तोड़कर वही अटक गई। पीछे से आतीदूसरी गाड़ी के ड्राइवर ने उन्हें झठ से एक एक कर बाहर निकाला। अगर तुरन्त ये न होता तो कुछ सेकण्ड्स में वो गाड़ी रेलिंग से नीचे खाई में गिर जाती। इस अप्रत्याशित घटना से सबके दिल दहल गए। वे परिवारजनों की मृत्यु के भय से निकल ही नहीं पाए थे और अब अचानक यह हादसा उनके होश उड़ाने  के लिए काफी था। डरते डरते सबने  आगे का सफर तय किया। सब बिल्कुल खामोश थे। जैसे तैसे वे लोग घर पहुंचे। उन सबके दिल दिमाग ने जैसे काम करना बंद कर दिया था। किसी को किसी चीज का होश नहीं ना खाने पीने का न सोने का।
तृषा और रक्षा के पास तो फिर भी उनका परिवार था।
सबसे ज्यादा खराब हालत अगर किसी की थी, तो वह था अमर। लेकिन फिर भी किसी के सामने वह कमजोर नहीं पड़ रहा था। कम उम्र में ही समझदारी वह बचपन से अपने गुणों में आत्मसात कर चुका था दादी को उसकी बेहद चिंता थी।
घर लौटने के अगले दिन दादी ने सभी परिवारजनों और अमर को  अपने कमरे में बुलवाया।
"मैने एक निर्णय लिया है जो तुम सबको बताने के लिए बुलाया है।" दादी ने तटस्थ भाव से कहा। फिर अपने पास बैठे अमर के सिर पर हाथ रख कहा-
"अमर अब से मेरे पास सुरेश की अमानत है। और वह हमेशा मेरे साथ मेरे घर में रहेगा।

मूलचंद जी को दादी की यह बात बिल्कुल पसंद नहीं आयी। वे उस समय तो परिस्थितियों के कारण कुछ नहीं बोले, लेकिन कुछ देर बाद अकेले में वे अपनी माँ से यह ना करने को कहते हैं।

"मां क्या करने जा रही हैं आप? अमर को अपने साथ रखने की क्या जरूरत है?"
"मोनू कैसी बात कर रहे हो तुम, अमर अकेला है। उसके परिवार में कोई नहीं, किराए के घर में वे रहते थे। बच्चा अभी पढ़ रहा है, क्या करेगा? कहां जाएगा? वह तो हमारे परिवार का ही एक हिस्सा था शुरू से। तुम जानते हो रायचंद और सुरेश के बीच  संबंध कैसे थे अमर होनहार बच्चा है अभी उसे सहारा न दिया तो उसकी पढ़ाई छूट सकती है।"

सब कुछ मैं जानता हूं माँ लेकिन कुछ ऐसा भी है जो मैं जानता हूं और शायद आप नहीं जानती।
"क्या नहीं जानती?"
पुलिस ने फोन पर बताया गार्ड को पैसे देने वाले व्यक्ति का पता चल गया उन्हें, वह व्यक्ति सुरेश ही था।

"मैं नहीं मानती कोई गलतफहमी हुई है उन्हें।"
जो सच है उसे आपको स्वीकारना ही पड़ेगा माँ। सुरेश ने हमारे साथ धोखा किया। संभवतः वह भैया के पैसों पर नज़र बनाये हुए था।

ये सब सुनकर भी दादी अमर को अपने साथ रखने के निर्णय पर अडिग थीं। वे कहती हैं
"मैं नहीं मानती कि सुरेश ने ऐसा कुछ किया होगा। वह पैसों के पीछे ऐसा करेगा हो ही नही सकता। रायचंद ने तो कई बार उसे लाखों रुपये आफर किये अपना व्यापार खोलने के लिए मगर उस बच्चे ने कभी 1 रुपया हमारा नहीं रखा। मुसीबत में लिए पैसे भी वह काम होते ही तुरन्त लौटाता था। वह ऐसा कभी नही कर सकता।"
"और एक बार के लिए चलो मान लिया कि पुलिस की तफ्तीश सही है और वे सही भी कह रहे हैं। तब भी, उसमें इस बच्चे की क्या गलती? सुरेश के किए की सजा में उसके बच्चे को बिल्कुल नहीं भोगने दूंगी।"

"ठीक है माँ! आपको जैसा लगे वैसा कीजिए। लेकिन मैं फैक्टरी में अमर की दखलअंदाजी बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं करुंगा।" माँ की ज़िद के आगे बेटे को आखिर झुकना ही पड़ा।

"माँ  मैं यहां की फैक्ट्री बन्द कर उसे बेंगलुरु में शिफ्ट कर रहा हूं। वहाँ से मैं सब बराबर नजर रख पाऊंगा और मेरे ख्याल से आप सब को भी वहीं चलकर रहना चाहिए। उन्होंने आगे कहा।

बेटा फिलहाल रक्षा का अभी कॉलेज बचा है। अमर और तृषा की ग्यारहवीं है इस साल। मेरे ख्याल से यह 2 साल हमें यहीं बिता लेने चाहिए उसके बाद हम बेंगलुरु शिफ्ट हो जाएंगे।

ठीक है, तब तक मैं वहीं से आप लोगों को पैसे भेजता रहूँगा। बीच-बीच में आपसे मिलने भी आता रहूँगा। अगर कोई भी परेशानी हो, आप मुझे फोन कीजिएगा।
गुलमर्ग से आने के बाद से मूलचंद जी के भी चेहरे की हंसी पूरी तरह गायब हो चुकी है अब वह पहले की तरह खुश कम ही नजर आते थे।
दो तीन दिन बाद मूलचंद जी अपने परिवार सहित लौट जाते हैं। घर एकदम खाली हो जाता है।  अमर को दादी ने कह दिया कि अबसे वह उनके पास यहीं रहेगा। मूलचंद जी के जाते ही खाली घर मे उन चारों की याद सताती है।  तृषा रक्षा और अमर दादी के गले लग जोर जोर से रोने लगते हैं।
"कितनी खुशी से हम इस ट्रिप पर गए थे दादी! हमें क्या पता था कि वापस आकर हमारी जिंदगी में सिर्फ और सिर्फ रोना लिखा होगा। काश! हम कभी वहाँ जाते ही नहीं। रोते हुए तृषा ने कहा।
"विधि के विधान को कोई नहीं बदल सकता मेरे बच्चों! जो लिखा था, जो होना था, वह हुआ। हम कुछ नहीं कर सकते।
"न जाने हमारे मां पापा किस हाल में होंगे कहकर रक्षा भी जोर जोर से रोने लगती है"

समय किसी के लिए नहीं रुकता कभी। समय अपनी गति से आगे बढ़ रहा था। अमर भी दादी या मूलचंद जी पर बोझ नही बनना चाहता था, लिहाजा दादी के बहुत मना करने पर भी उसने होम ट्यूटर का काम शुरू कर दिया स्किल्स अच्छी होने से उसे 4 स्टूडेंट्स  शुरुआत में ही मिल गए थे।
रक्षा तो ज्यादा किसी से न पहले बोलती थी ना अब।  उसने भी समय काटने के लिए अपने कॉलेज के पास के छोटे से स्कूल में टीचर की जॉब कर ली। लिहाजा उसे ज्यादा समय भी नहीं मिलता था। वह बस अपनी पढ़ाई करती, स्कूल के काम निपटाती, खाना खाती और सो जाती। इससे ज्यादा उसके रूटीन में किसी के लिए भी समय नहीं था।
तृषा अब पहले की तरह नटखट और जिद्दी नहीं रही थी। हालांकि लाड़ दुलार उसका दादी अब भी उतना ही करती थी। अमर भी उसका अब पहले से भी ज्यादा ख्याल रखता था।उसकी छोटी से छोटी बातों के बारे में सोचता। और उसकी हर ख्वाहिश अब भी पूरी करता। सब लोग एक दूसरे को संभाल रहे थे। लेकिन इधर उस घटना के बाद से  तृषा को लगभग हर रात वह भयानक हादसा सपने में दिखाई देता। और उसके साथ ही अजीबोगरीब डरावने चेहरे, जिन्हें देखकर वह डर के मारे नींद से उठ जाती और फिर रातभर उसे नींद न आती। न वो ठीक से खा रही थी न सो रही थी। जब भी वह परेशान होती दादी उसका सिर अपनी गोद में रख प्यार से सहलाती। तृषा भी जब भी उदास होती या तो दादी की प्यार भरी बातें उसके चेहरे पर हँसी ला पाती या फिर अमर के चुलबुले जोक्स।
रक्षा ने भी अपने मोबाइल से उस ट्रिप  के सब पिक्चर्स डिलीट कर दिये। जब भी वह उन्हें देखती उसे खूब रोना आता था।

धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य हो चुका था जिंदगी पटरी पर आने लगी थी
गुलमर्ग की दुःखद घटना को हुए अब साल भर हो चुका था। बच्चे अगली कक्षा की परीक्षा दे चुके थे। आज तक उनके परिजनों का कोई पता नहीं चल पाया था।
अमर और तृषा की ग्यारहवीं की परीक्षा का आज आखरी पेपर था। उन दोनों का अब और भी वक़्त एकसाथ बीतता मूलचंद जी उनकी पत्नी और निशा के बीच बीच मे आने से घर का माहौल थोड़ा खुशनुमा सा लगता। आज भी वे लोग आए हुए थे।

"आइसक्रीम खाने चलें?" निशा ने कहा।
इस 1 साल में उनकी आइसक्रीम पार्टियां बन्द हो चुकी थी। तीनो का मन नही था मगर निशा, जबरदस्ती उन्हें लेकर आई। वह तृषा और रक्षा को अपने किस्से सुना सुना कर हंसाने की कोशिश कर रही थी।
समय बिताते हुए अब सबने एक्सेप्ट कर लिया था कि उन्हें जाना ही था। अपनी नार्मल लाइफ में सब धीरे धीरे लौट रहे थे।

आज अमर और तृषा के रिजल्ट का दिन था दादी उन दोनों का बेसब्री से इंतजार कर रही थी। उन्हें गए 3 घंटे बीत चुके थे लेकिन अब तक वे वापस नहीं आए।

" देखो बेटा कहाँ रह गए ये। मुझे बहुत चिंता हो रही है। स्कूल से आते ही चिंतित हो दादी ने उसे कहा।"

"दादी जिम्मेदारियों के अलावा मेरे हिस्से कभी कुछ आएगा…?अब बच्चे तो नही हैं ये दोनों। हर वक़्त इनके आगे पीछे घूमा जाए।" थकान के कारण उसने न जाने क्या कुछ कह दिया। चिढ़ कर रक्षा ने कुछ दोस्तों को फ़ोन लगाया।
"सुमन"
"हाँ बोलिये दीदी"
"दीदी वे दोनों तो यहां नहीं है कब से निकल चुके हैं।" रक्षा के सवाल के जवाब में उसने कहा। निलेश और आभा ने भी कहा कि वे उनके साथ नहीं हैं।
रक्षा जब यह बात दादी को बताती है तो दादी बेहद चिंता में पड़ जाती है।

कहां चले गए आखिर अमर और तृषा? क्या होगा आगे? कहीं वे दोनों किसी मुसीबत मे तो नहीं? क्या दादी और रक्षा उन्हें ढूंढ पाएंगे? जाने के लिए देखें सुने पढ़ें रूह का रिश्ता का अगला एपिसोड

Episode 10

रूह का रिश्ता:अनजानी परछाईयाँ

टिप्पणियाँ

सर्वाधिक लोकप्रिय

मेरे दादाजी (कविता)

धरती की पुकार

काश!