11)रूह का रिश्ता: उलझती गुत्थियाँ

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रूह का रिश्ता: एक अंधेरी रात

रूह का रिश्ता:अतीत की यादें

रूह का रिश्ता: अनहोनियों की शुरुआत

रूह का रिश्ता: अनसुलझी पहेलियाँ

रूह का रिश्ता: लम्हे खुशियों के

रूह का रिश्ता: भूलभुलैया

रूह का रिश्ता:राह-ए- कश्मीर

रूह का रिश्ता: हादसों की शुरुआत

रूह का रिश्ता: रहस्यों की पोटली

रूह का रिश्ता:अनजानी परछाईयाँ



पिछले एपिसोड में आपने देखा तृषा गयरहवीं में फेल हो जाती है। घर आते वक्त रास्ते में तृषा को कोई परछाई दिखाई देती है। और वह बेहोश हो जाती है। अमर और रक्षा उसे अस्पताल से लेकर आते हैं। अमर तृषा को फाइन आर्ट्स से आगे पढ़ने के लिए समझाता है। रात को तृषा सो नहीं पाती बेचैनी सी होने पर वह कमरे से बाहर निकलती है उसे अपने पापा के कमरे से किसी की रोने की आवाज आती है। अब आगे

रूह का रिश्ता: उलझती गुत्थियाँ

उसकी आँखें पूरी तरह लाल हैं। तृषा उसे देख डर कर सहम जाती है। वह तृषा को एक टक देख रहा है। तृषा ध्यान से देखती है यह अमर है। वह धीरे से उसके पास जाकर बैठती है।

"क्या हुआ अमर!? यहां ऐसे क्यों बैठे हो!?
कोई परेशानी है तो मुझे बताओ, ऐसे रोओ मत। चुप हो जाओ प्लीज़।
"कैसे चुप रहूँ तृषा? जिस वक्त मुझे अपने माँ पापा का सहारा बनना था, उस घड़ी में, मैं तुम्हारे परिवार, तुम्हारी दादी पर बोझ बन बैठा हूँ।"
"बोझ नही हो अमर, सहारा हो तुम हमारा। मैं तो बस तुम्हारे और दादी के सहारे जी रही हूँ। तुम बस अपनी पढ़ाई पूरी कर लो फिर हम सबकी जिम्मेदारी तुम्हे संभालनी है। तृषा बड़े प्रेम से उसे समझा रही होती है। 

"मैं खुशी-खुशी सब संभाल लूंगा तृषा। तुम मेरे साथ रहना बस।" कहकर वह तृषा के के हाथ पर हाथ रख एक कुटिल मुस्कान बिखेरता है।

तृषा झट से अपना हाथ पीछे खींच खड़ी हो जाती है। अमर ने उसके कितना भी करीब होने पर कभी आज तक उसे स्पर्श नहीं किया था। उन दोनों के बीच मर्यादाओं की एक मजबूत रेखा थी। तृषा को  इसलिए अचानक उसका यूँ स्पर्श करना बहुत अजीब सा लगा।  उसे ऐसे झटके से खड़ा होता देख कर वह फिर मुस्कुरा देता है। तृषा वहाँ बहुत असहज महसूस करती है इसलिए तुरंत कमरे से बाहर निकल जाती है।

अगले दिन तृषा उठती है तो उठते ही उसे कल रात की घटना याद आती है। उसे फिर बैचेनी सी होने लगती है। वह ये बात दादी या रक्षा को बताने की सोचती है मगर फिर कुछ सोचकर रुक जाती है।

उठते ही सुबह सुबह रोज वह कुछ पल दादी के पास बैठती है। ये उसकी दिनचर्या में शामिल था। वह हॉल में दादी के पास जा ही रही होती है अमर उठकर अपने कमरे से बाहर आता है। "गुडमार्निंग"
"गुडमार्निंग"  बदले में वह भी जवाब देती है मगर थोड़ी रुखाई से।
"क्या हुआ? तबियत ठीक नहीं तुम्हारी?"
"मेरी तो ठीक है। तुम्हे क्या हुआ था रात को।" रक्षा से रहा नहीं जाता तो वह पूछ ही लेती है।

"मुझे मुझे क्या होना है। नींद क्यों नही आ रही थी फिर?"

"कल तो मैं उल्टा बहुत आराम और सुकून से सोया हूँ। अब न तुम्हारी तबियत और न तुम्हारी पढ़ाई की चिंता थी। बेहद अच्छी नींद आई।"अपने कमरे से बाथरूम की और बढ़ते हुए अमर ने जवाब दिया।
"तो रात को तुम पापा के कमरे में जाकर क्यों...?" कहते कहते तृषा अचानक अंदर से के सहम गई। वह उसके पीछे पीछे चल रही थी।
"कल रात!?"
हाँ!!?
मैं क्या करूंगा वहाँ? कल रात क्या मैं अंकल के जाने के बाद "कभी उनके कमरे में नहीं गया तृषा! कितना खालीपन सा लगता होगा वहाँ।"
"मजाक मत करो मुझसे!!"
"मजाक नहीं कर रहा हूं यार! मैं अंकल के कमरे में जाकर क्या करूंगा शायद तुमने सपना देखा होगा!"
"अमर जागती आंखों का भी सपना होता है क्या?"
"होता है न !कभी-कभी हम कल्पनाओं में इतने खो जाते हैं कि वो ख्वाब हम जीते हुए बुनने लगते है।"
"पर ऐसी कल्पना में क्यों करूँगी!? मन ही मन कहकर वह सवालों की गुत्थियों के साथ  ही दादी के पास चली गई।

दादी के पास बैठकर वह उनके गले लग जाती है।
"आज तो बड़ी देर से सुबह हुई मेरी बिटिया की।"
"हाँ दादी!! नींद ही नहीं आती रात को! वो अजीब से सपने अजीब सी बेचैनी!"
"बेटा भूलने की कोशिश करो अब सब।"
" दादी क्या मैं पहले की तरह आपके पास सो सकती हूँ जैसे बचपन में सोती थी। हाँ क्यों नही।"

तृषा दादी के पास सोती तब भी वे सपने उसका पीछा न छोड़ते। लेकिन अब जैसे जैसे तृषा बड़ी हो रही थी वह घबराकर डरकर उठकर इनके लिए दादी को परेशान न करती। थोड़ी घबराती, परेशान होती और हिम्मत कर खुद ही वापस सोने की कोशिश करती।
तृषा इन सपना के साथ अपने आसपास रोज दिखने वाली इन परछाईयों से भी बेहद परेशान है। वह जब भी अमर या रक्षा को यह बातें बताती है वे दोंनों  उसे कह कर टाल देते हैं की ये उसके मन का वहम है। या फिर दोनों उसे काउंसलिंग के लिए डॉक्टर के पास चलने  की ज़िद करते। तृषा सब कुछ देखते, झेलते हुए धीरे धीरे आगे बढ़ती जा रही थी। अब तक
उसके साथ अब तक कोई बड़ी अनहोनी नहीं हुई।
उसे भी लगता, शायद वह कुछ ज्यादा सोचती है इसलिए उसके साथ ज्यादा परेशानियाँ हैं। उनका जीवन सामान्य नहीं तो बेहद असामान्य भी नही था। धीरे धीरे वे अपने जीवन मे आगे बढ़ रही थी।  दादी से वह अपनी हर बात शेयर करती, लेकिन ये परछाईयों के दिखने वाली बात उसने दादी को कभी नहीं बताई।  

समय जैसे पंख लगाकर उड़ रहा था। अमर और तृषा स्कूल से निकल कर कॉलेज में आ चुके हैं। तृषा अब अमर से 1 साल पीछे है। अमर बी बी ए फाइनल ईयर में और तृषा बीएफए के दूसरे वर्ष में प्रवेश कर चुकी है। अब वह इतनी सुंदर पेंटिंग्स बनाती है कि लोग तारीफ करते नहीं थकते। मोनू चाचा के कहने पर वह अपनी पेंटिंग्स की दो तीन बार एग्जिबिशन भी लगा चुकी है। जिसमें उसकी पेंटिंग्स को खूब पसंद किया गया। कुछ पेंटिंग्स तो हाथों-हाथ ही बिक भी जाया करतीं। रक्षा को MBA किये हुए साल हो चुके हैं वह अब एक प्राइवेट कंपनी में असिस्टेंट मैनेजर की पोस्ट पर काम कर रही है। दादी उसके लिए सुयोग्य वर तलाशने की बहुत कोशिश कर रही है पर अब तक कोई सही रिश्ता उसके लिए नहीं मिल पाया। मिला भी तो बात न बन पाई। अमर अपने कॉलेज के प्रोफ़ेसर के भाई की मल्टीनेशनल कम्पनी में डेटा एंट्री ऑपरेटर का पार्ट टाइम काम कर रहा है। प्रोफ़ेसर ने उसके पढ़ने के साथ काम करने के जज़्बे को देखकर उसे अपने भाई को रिकमेंड किया था। इस तरह लंबे वक़्त में बहुत कुछ बदला पर नहीं बदला तो वो था तृषा की रातें। उसे अक्सर सपने में और अपने आसपास अलग अलग परछाईयों का आभास होता।  जिसे वह नज़रअंदाज़ कर जीने का भरपूर प्रयास कर रही थी।

एक शाम अमर तृषा और दादी साथ बैठ चाय पी रहे हैं।
इतने में दादी का फोन बजता है।

"हाँ बेटा बोलो!"  दादी फ़ोन उठाकर कहती है।

"अच्छा!!"

"अरे वाह!!!"

"ये तो बड़ी अच्छी बात है बेटा ले आओ उन्हें।"
थोड़ी देर बाद जवाब में दादी फिर बोली।

"हाँ हाँ तुम चिंता मत करो।"
"आ जाओ बस कल सबको लेकर।"

"मोनू चाचा का फोन था दादी?" अमर ने पूछा।
"हाँ बेटा!"
"वे यहाँ आ रहे हैं क्या?"  होठों से लगा चाय का कप हटा उसे टेबल पर रख तृषा पूछती है।

"हाँ बेटा 2 दिन बाद। और  उन सब के साथ कुछ मेहमान भी आ रहे हैं।"
"मेहमान?" दोनों ने एकसाथ प्रश्नवाचक भाव से पूछा।

"हाँ बेटा!"
"रक्षा के लिए एक रिश्ता है। लड़के वाले यहीं आकर मिलना चाह रहे थे।"

"अरे वाह! ये तो बहुत अच्छी बात है! फिर दोनों के मुंह से एक साथ निकला।"  दोनों ही यह खबर सुनकर बहुत खुश हो गए।

"अभी रक्षा आएगी तो उसे कहना कि 2 दिन बाद हाफ डे ले ले।"

रक्षा के ऑफिस से आकर खाना खा लेने के बाद तृषा उसके कमरे में जाती है।
"दीदी ट्यूजडे के लिए ऑफिस से हाफ डे ले लीजिएगा।"
"क्यों क्या है उस दिन?" मोबाइल स्क्रीन स्क्रोल करती हुई रक्षा पूछती है।
"कल आपसे मिलने कुछ लोग आ रहे हैं।" दरवाज़े के पास उसका हैंडल पकड़ खड़ी तृषा कहती है।

"मुझसे मिलने.,.!?"

हाँ!! तृषा ने मुस्कुराते हुए कहा। मगर रक्षा का पूरा ध्यान मोबाइल पर है।

"कौन आ रहा है? मोनू चाचा के साथ एक परिवार आ रहा है!" आपके रिश्ते के लिए बात करने।

"या यूं कहूँ शायद हमारे होने वाले जीजा जी।" हल्की मुस्कान के साथ वह बोली।
"ठीक है ले लूंगी।"
"लेकिन फिलहाल मुझे इस बारे में कोई बात नहीं करनी है। जब तक सब तय नहीं होता, तब तक के लिए अपने मुंह और ख्वाबों पर थोड़ी लगाम लगा कर रखना।" रक्षा ने थोड़ी रुखाई से कहा। और ऐसा कह कर वह मोबाइल साइड में रख लाइट ऑफ कर सो गई।

उसके साथ कई बार यह हो चुका था। या तो रिश्ते की बात बनती नहीं थी और अगर बनती थी तो किसी न किसी कारण से वह बात वहीं खत्म हो जाती थी। कभी उसके दबे रंग के वजह से तो कभी उसके कम बोलने को लेकर। इसलिए रक्षा ने यह सब सपने बुनना छोड़ ही दिया था।
तृषा भी सोने चली जाती है।

अगले दिन रविवार होता है अमर को सुबह-सुबह बाइक निकालता देख तृषा कहती है।
"हेलो मिस्टर अमर"
"बोलो मिस तृषा"

"छुट्टी के दिन के कहाँ जा रहे हो सुबह सुबह?"
"दोस्तों से मिलने।"
"नही जाओगे।"
"क्यों भई?"
"क्योंकि आज तुम मेरी हेल्प करोगे।"
"कैसी हेल्प?"
"कॉलेज से एक प्रोजेक्ट मिला है 10 लाइव स्केचेज़ 2 दिन बाद सबमिट करना है अलग-अलग सब्जेक्ट्स पर।"
"तो मैं क्या करूँ!? मुझे थोड़ी ना तुम्हारी तरह चित्रकारी आती है!"
" हे भगवान! तुम्हें चित्रकारी नहीं करनी है।"
"तो क्या करूं डांस?"  कहकर वह सच डांस के स्टेप की तरह हवा में हाथ नचाने लगा।
नहींSssss तृषा चिल्लाई। रक्षा दीदी की शादी के लिए बचाकर रखो ये तो।
ये डांस तब किया तो वे मार डालेंगी वो मुझे। दोनों खिलखिलाकर हंस पड़े।  
अच्छा कयक हेल्प चाहिए फिर बोलो तुम्हारे लिए कोई स्टेशनरी आइटम लाना है?
नहीं!! बस चुपचाप बैठो कुछ देर मेरे सामने उतना काफी है।  तुम्हारा स्केच बनाऊंगी।

"क्याssss..  क्यों!!?  भूत बनाने को मैं ही मिला? चेहरा बिगाड़ने के लिए कहीं और कोई नहीं है क्या ?
क्या अच्छा इतनी बुरी पेंटिंग बनाती  हूँ मैं?
नहीं! पेंटिंग तो बहुत अच्छी बनाती हो। लेकिन मेरा स्केच डेफिनेटली खराब बनाओगी।
"जो भी हो तुम चलो मेरे साथ। इस के मामले में  यानी जिद पूरी करवाने और नखरे मनवाने में तृषा हरदम आगे थी। अमर और दादी से जिद पूरी करवाना तो उसका पसंदीदा काम था। जबरदस्ती जिद कर वह अमर को छत पर ले गई। और उसका स्केच बनाती रही। लगभग 1 घंटे तक उसने उसे यूं ही बिठाए रखा और बीच-बीच में चिल्लाती भी रही।
"सीधे बैठो।"
"मैडम इसकी सजा मिलेगी तुम्हें।
"तब की तब देखेंगे, अभी अच्छे बच्चे जैसे स्टेच्यू बन कर बैठ जाओ!"
"अच्छा कितनी देर लगेगी? मैं थक गया।"
"बस आखरी 5 मिनट ओर सहुपचाप बैठ जाओ प्लीssssssज़!!!
मैं इसे फाइनल टच दे दूं, फिर तुम्हें बढ़िया सी चाय पिलाती हूँ। स्केच  कंप्लीट होने में आखरी कुछ सेकंड बचे होते हैं।
अमर चुप बैठा है। तृषा अलनी काम मे लगी है।

अचानक तृषा को अहसास होता है कि कोई तेज़ी से उसके कान में अजीब तरह की डरावनी हँसी हँस रहा है। उसकी सांसे अटक जाती है। वो पीछे मुड़के देखती है, उसे कोई दिखाई नही देता। यह सब तृषा के साथ क्यों हो रहा है!? कौन है इस सब के पीछे!! आखिर कब यह गुत्थी सुलझेगी? क्या अब जल्द ही बाहर आएगा इन सब के पीछे का राज? जानने के लिए पढ़ते रहें, रूह का रिश्ता का अगला एपिसोड

Episode 12

रूह का रिश्ता: रहस्यों की दुनिया

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