13) रूह का रिश्ता: एक अघोरी
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रूह का रिश्ता: अनहोनियों की शुरुआत
रूह का रिश्ता: अनसुलझी पहेलियाँ
रूह का रिश्ता: लम्हे खुशियों के
रूह का रिश्ता: हादसों की शुरुआत
रूह का रिश्ता: रहस्यों की पोटली
रूह का रिश्ता: रहस्यों की दुनिया
पिछले एपिसोड में आपने सुना तृषा को पेंटिंग बनाते हुए किसी की डरावनी हंसी की आवाज सुनाई देती है। अमर के स्केच में पीछे एक डरावना चेहरा बना दिखाई देता है।तृषा दादी को यह घटना बता देती हैं। रक्षा का रिश्ता बेंगलोर में नहीं हो पाता। किसी श्मशान में एक अघोरी किसी तांत्रिक क्रिया में व्यस्त है। अमर किसी ट्रिप पर गया है और उसका फोन बंद है। अब आगे
रूह का रिश्ता: एक अघोरी
चौथे दिन सुबह-सुबह अमर वापस आता है। दादी और तृषा उसे सही सलामत देखकर बहुत खुश हो जाते हैं मगर साथ ही तीन दिन उनसे बात ना करने को लेकर उस पर नाराज भी खूब होते हैं!
दोनों ही उस पर एक-एक कर सवालों की बौछार लगा देते हैं।
दादी -क्या है अमर है जरा भी चिंता नहीं है
तृषा- हां और क्या इतना परेशान थे हम कहां थे तुम ?
दादी -और तुम्हारा नंबर क्यों बंद आ रहा था?
तृषा- हां! बताओ, कहां थे तुम? बोलो अब क्यों चुप क्यों खड़े हो?
अमर अरे!!! आप दोनों मुझे बोलने देंगी तब तो बोलूँगा।
तृषा- अच्छा ठीक है बोलो सुन रहे हैं हम। कहकर वह दादी का हाथ पकड़ हॉल के बीचों बीच जाकर सोफे पर बैठते हुए उन्हें भी अपने पास बैठने का इशारा करती है। दादी तृषा की ओर देखती है और दोनों एकसाथ वहाँ बैठ जाते हैं।
उन्हें बैठा देख अमर किसी फरियादी की भांति उनके सामने खड़ा हो अपनी आपबीती सुनाने लगता है।
दादी यहाँ से निकलकर कुछ किलोमीटर पर एक बायपास तक पहुँचते ही हमारी बस का टायर पंचर हो गया। दूर तक कोई भी मैकेनिक नहीं था। हमें वहीं छोड़ वह ड्राइवर एक गाड़ी वाले से लिफ्ट लेकर किसी मैकेनिक को लेने गया और 2 घंटे तक वापस नहींआया ना ही उसने फोन उठाया। लिहाजा कॉलेज मैनेजमेंट ने वही की दूसरी लोकल बस से आगे जाने का इरादा किया थोड़ा आगे पहुंचते ही उस बस को भी जोर का झटका लगा। अचानक वह एकदम से दुगनी रफ़्तार में भागने लगी। ड्राइवर असहज हो गया, उसे भी कुछ समझ नहीं आया और घबराहट में उसने स्टेयरिंग इधर उधर घुमाया, कुछ ही सेकंड में हमारी बस आगे चल रहे ट्रक से टकराती हुई वहीं रोड पर पलट गई।
सुनकर दादी और तृषा घबरा गई। तुम्हें कहीं चोट तो नहीं लगी। नही बस कुछ हल्की खरोचें हैं। अधिकतर को हल्की-फुल्की चोटें आई थी एक दो को सिर में लगी। दो लड़कों को फ्रैक्चर हो गया।
हम सब एक दूसरे की मदद कर उन्हें बाहर निकालने लगे। इसी एक्सीडेंट के समय ही शायद फोन कहीं बस में गिर जो बाद में बहुत ढूंढने पर भी नही मिला। माहौल थोड़ा ठीक होने पर मैने कोशिश भी की, एक क्लासमेट के फ़ोन से घर का फ़ोन भी लगाया। और रक्षा दीदी का भी। मगर कॉल न जाने क्यों कनेक्ट नहीं हुआ बाकी के दो तीन दिन भी मैने अलग अलग दो फोन्स से कोशिश की लेकिन घर के दोनों फ़ोन आउट ऑफ कवरेज ही बताते रहे। दोनों को सुनकर आश्चर्य हुआ।
कोई बात नहीं तुम सही सलामत हो हमारे लिए यही महत्वपूर्ण बात है। दादी ने कहा।
जाओ पानी लेकर आओ बेटा!
हाँ, अब तो पानी दे दो, गला सूख गया मेरा। थक कर आया हूँ ।और आप लोगो ने आते ही मेरी क्लास लेना शुरू कर दी।
तृषा पानी लेकर आई अमर भी पानी पीकर अपने कमरे में चल गया।
थोड़ी देर बाद तृषा खाना बनाने किचन में चली गई।
अमर भी घूमता हुआ वहाँ पहुंच गया।
"पूरे तीन दिन के बाद लौटा हूँ चाय नहीं पिलाओगी?
बहुत मिस किया तुम्हारे हाथ की चाय को। किचन में काम करती हुई तृषा के पास जाकर अमर कहता है।
तृषा उसे देख मुस्कुरा कर चाय बनाने में लग जाती है।
और तुम्हें भी। किचन से बाहर निकलते हुए बिना उसकी और देखे अमर कहकर निकल जाता है।
तृषा के चेहरे पर उसकी आंतरिक खुशी बड़ी सी मुस्कान के रूप में झलक आती है।
वह उसे चाय बना दे देती है।
सब लोग खाना खाकर आपस मे बातें करते हैं। दादी और तृषा किसी काम के लिए दादी के कमरे में जाती है।
हॉल में रखा फ़ोन बजता है। अमर फोन रिसीव करता है।
"हेलो"
"हां कहो"
"तुम्हारा फ़ोन कहाँ है?"
"खो गया कहीं।"
वह बात कर रहा होता है इतने में दादी और तृषा भी आ जाते हैं।
"तुम अकेले हो या आसपास भी कोई है?" दूसरी ओर से आवाज़ आती है।
"हाँ है।"
कहीं और जाकर बात करो।
"ठीक है में पाँच मिनट में लगता हूँ…! कहकर अमर फोन रख देता है।"
"दादी मैं थोड़ी देर में आता हूं।" अमर दादी को कह बाहर निकल जाता है।
बाहर निकल कर कुछ दूरी पर बनी एक दुकान से वह किसी को फोन करता है।
"हलो!"
"हलो! जवाब में उधर से भी आवाज आती हैं।"
"हां, अमर बोल रहा हूं बोलो।"
"तुम अभी यहां आ जाओ"
"उधर से आने वाली आवाज जैसे अपने आंसुओं को ज़ब्त करते हुए रूंधे गले से आ रही थी।"
"लेकिन अचानक हुआ क्या है?"
"फिलहाल तुम बस आ जाओ!" कह कर उसकी रुलाई फूट पड़ी।
"अच्छा ठीक है बस आ रहा हूं, निकलता हूं आज ही। रोओ मत।"
वापस आकर वह दादी से कहता है।
"दादी एक जरूरी काम है आफिस का मुझे शहर से बाहर जाना है। शायद 2 दिन बाद लौट पाऊँगा।"
तृषा और दादी उसे आश्चर्य से देखने लगते हैं।
वापस?? तुम आज ही तो आये हो अमर।
तृषा ने कहा।
हां मगर जाना जरूरी है
क्या बात है बेटा कोई परेशानी है
नहीं दादी! बस ऑफिस के काम का थोड़ा टेंशन है।
अमर शहर से बाहर निकलने के पहले एक फ़ोन खरीदता है। और सिम एक्टिवेट हिट ही उसे फ़ोन कर बताता है।
"ये मेरा नम्बर है। इसी पर फ़ोन करना अब।"
अमर दादी को भी फोन करता है
"हेलो"
"हां दादी यह मेरा नया नंबर है आप लिख लीजिए।"
"मैं बताता हूं या अगर रक्षा दीदी हों घर पर तो मैं उनके मोबाइल पर फोन करूं?"
"नहीं, बेटा! रक्षा तो घर पर नहीं है तो मुझे बताओ नंबर।"
दादी अमर का नंबर लिख लेती है और तृषा को भी बता देती हैं कि उसने नया फोन खरीद लिया है।
यह लड़का चला जाता है तो घर से रौनक ही चली जाती है। कितना सूना लगता है इसके बिना दादी सोचती हैं।
रात को तृषा अमर को फ़ोन करती है। उसका फ़ोन फिर बन्द आ रहा है। तृषा को अजीब सी बेचैनी होती है।
कुछ देर बाद वह दादी के कमरे में चली जाती हैं।
दादी सोने की तैयारी में होती है।
"आप इतनी जल्दी सो रही हैं? मुझे आपसे बहुत सारी बातें करनी है।"
"तो करो ना मेरी बिटिया। आ जाओ चलो लेटे-लेटे बातें करते हैं।"
"नहीं! मुझे नींद नहीं आ रही है। मैं बैठे बैठे ही बातें करूंगी और आपके पैर भी दबा देती हूँ। जब आपको नींद आए तो आप सो जाइएगा।"
"अच्छा ठीक है।" कहकर दादी प्यार से उसकी ओर देख हंसने लगती है।
"बताओ फिर कैसा चल रहा है कॉलेज?"
"बहुत अच्छा।"
"अभी एक कॉम्पीटिशन चल रहा है कॉलेज में। कल उसी के लिए कुछ पेंटिंग्स सबमिट करनी है दादी!!"
"सुबह जल्दी उठूंगी। दस पेंटिंग्स सबमिट करनी है टोटल। सब्जेक्ट फ्री कॉम्पिटिशन है। नौ तो मैं बना चुकी हूँ । लेकिन अब एक और में, मैं क्या बनाऊं, मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा।"
"सुबह मुझे दिखाना, तुम ने क्या-क्या बनाया। फिर मैं कोई सब्जेक्ट बता दूंगी।"
"हाँ दादी!" कहकर वह मुस्कुरा दी।
"दादीsss!!! आज अमर कुछ परेशान सा नहीं लगा आपको?"
"हां बेटा लगा तो। शायद ऑफिस के किसी काम का टेंशन होगा।"
"मुझे तो कोई और ही परेशानी लगती है।"
"क्या???"
"यह तो नहीं पता"
"वह तुमसे तो एक एक बात शेयर करता है न?"
"हां करता तो है।"
"बस कोई समस्या होगी तो तुम्हें जरूर बताएगा.।" दादी ने कहा
"हां! शायद आप सही कह रहे हो।"
"चलो बाकी बातें कल करेंगे सो भी जाओ तुम्हें जल्दी भी तो उठना है।" कहकर दादी ने तृषा को लाइट ऑफ कर सो जाने को कहा।
"तंत्र साधना, शव साधना, श्मशान साधना, भैरवी और तारा जैसी सारी साधनाएं जानता हूँ मैं!!! समझा महा मूर्ख!!!! अब मेरी शक्तियों को कम समझने की गलती की तो तुझे खड़ा खड़ा भी भस्म कर सकता हूँ मैं। दुबारा मत पूछना।"
भयानक वेशभूषा और शक्ल वाला अघोरी घनी अंधेरी रात में अमर को पकड़ कर श्मशान घाट लेकर जा रहा है। आधी रात में सब सोए हैं, और जाग रहा है तो बस श्मशान। तेज हवाएं चल रही है, पेड़ों के पत्ते कानों में सांय सांय की आवाज़ कर रहे हैं। अजीब से जानवरों की आवाज़ें उन पत्तों की आवाजों के साथ मिलकर उस रात को और डरावना बना रही है। अमर उसके साथ साथ उसके पीछे पीछे चला जा रहा है। श्मशान घाट में जली कुछ चिताओं के अंगारे तक अब तक ठंडे नहीं हुए।
अघोरी अमर को एक ऐसी ही चिता के पास ले गया जो कुछ समय पहले जलकर भस्म हो चुकी थी। उसके अंगारे भी अपेक्षाकृत ठंडे हो चुके थे। उसने अमर को वहाँ ले जाकर कुछ मंत्र पढ़ते हुए चिता के बीचों बीच बैठने का इशारा किया।अमर को बीचो-बीच बिठा देने के बाद उसने
पूर्व दिशा की ओर मुंह करके कहा
"ओम ह्रीं फट"
फिर चारों और घूम कर उसने चारों दिशाओं को कीलित करना शुरू किया।
इसके लिए पहले पूर्व में मुँह कर हाथ मे जल ले उसने अपने गुरु का ध्यान किया ।
फिर पश्चिम में मुंह कर "जय बटुक भैरवाय नमः" कहा।
उत्तर में घूमकर हाथ मे जल लेकर "योगिनी नमो नमः" कहा। दक्षिण में घूमकर फिर "ओम फट स्वाहा" कहते हुए वह जोर से चिल्लाया।
उसके चिल्लाने के बाद जवाब में कुछ चीखें श्मशान में सुनाई देने लगीं। जिन्हें सुनकर वह जोर से हंसा। अमर बेहद डरा हुआ था।
"हूं हूं ह्रीं ह्रीं कालिके घोरदंस्ट्रे प्रचण्ड चण्डनायिकेदानवान द्वाराय हन हन शव शरीरे महाविघ्न छेदय छेदय स्वाहा हूं फट" का उच्चारण करते हुए उसने अमर के साथ उस श्मशान भूमि पर भी जल के छींटे डाले।
अमर के बैठने के स्थान पर चारों कोनों में उसने लोहे की एक एक कील जमीन में गाढ़ दी। उसके बाद एक काला धागा लेकर चारों कीलों से होते हुए लपेट कर उसे इस तरह बांधा की अमर उस घेरे के अंदर आ जाए। अब उस धागे का अंतिम सिरा उसने अमर को हाथ में दे दिया। इसके बाद उन चारों कीलों के पास एक एक नींबू रखा। एक बोतल से पारदर्शी तरल, नींबू पर एक एक बूंद डाला। जिसे डालते ही नीबुओं का आकार छोटा होकर उनका रंग लाल हो गया। अमर का चेहरा पसीने से तरबतर हो रहा था उसे देख कर ही लग रहा था कि वह काफी घबराया हुआ है। उसकी सांसें तेजी से चल रही थी। मगर वह चुप बैठा हुआ था।
उसके बाद उसने कुछ उड़द के दाने और एक एक सफेद बर्फी चारों कीलों के पास रखी।
फिर तेज़ आवाज़ में अमर को सावधान करते हुए उसने कहा
"ले बच्चे! सुन ले अब ध्यान से!"
"आँखें बंद करके बैठना और जब तक मैं ना कहूँ, न तू आंखे खोलेगा न ही एक भी शब्द बोलेगा। और याद रख चाहे कुछ भी हो मेरे कहने के पहले तू ना यह धागा छोड़ेगा न ही यहां से एक इंच भी हिलेगा। हो एकता है तुझे कोई बुलाये मदद के लिए पुकारे पर याद रख, जब तक धागे के कवच के अंदर है और इसका एक सिर तेरे हाथ मे है, तब तक ही तू सुरक्षित है। इनमें से कुछ भी करने पर तू मृत्यु के करीब जा सकता है। और उसका जिम्मेदार फिर मैं नहीं हूं।
उसकी बात सुनकर घबराते हुए अमर ने सहमति में गर्दन हिलाई और अमर की सहमति मिलते ही वह फिर कुछ मंत्र पढ़ने लगा।
जैसे जैसे वह मंत्र पढ़ता जहां अमर बैठा था वहाँ की भूमि में हल्का कंपन शुरू हो गया। हवाएँ अचानक तेज हो गई। पेड़ों से सूखे पत्ते गिरकर उड़ते हुए एक झुंड में अमर की और आने लगे।
"मुझे बचा लो अमर"
अचानक उसे एक लड़की के रोने की तेज तेज़ आवाज़ आने लगी। मगर तांत्रिक के कहे अनुसार उसने अपनी आंखे बंद ही रखीं।
थोड़ी ही देर में बंद आंखों में ही उसे उसकी रोती शक्ल दिखाई देने लगी और उसकी आवाज़ और भी करुण हो गई।
"मुझे बचा लो अमर प्लीज़…"
उसकी छवि दिखते ही अमर की आंखें अचानक खुल गईं। और धागा उसके हाथ से छूट गया।
क्या होगा आगे? आखिर अमर के पास किसका फ़ोन आया जो वह यूँ उठकर चला गया? कौन है यह तांत्रिक? अमर यहाँ क्या कर रहा है? बंद आंखों में उसे दिखी छवि किसकी थी?
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